मौत की आगोश में, जब थकके सो जाती है माँ
तब कहीं जाकर "रज़ा" थोडा सुकूँ पाती है माँ
फ़िक्र में बच्चों की कुछ इस तरह घुल जाती है माँ
नौजवां होते हुए बूढी नज़र आती है माँ
कब ज़रूरत हो मेरी बच्चों को इतना सोचकर
जागती रहती हैं आँखें और सो जाती है माँ
पहले बच्चो को खिलाती है सुकूनो चैन से
बाद में जो कुछ बचा वो शौक़ से खाती है माँ
मांगती कुछ भी नहीं नहीं अपने लिये अल्लाह से
अपने बच्चों के लिए दामन को फैलाती है माँ
प्यार कहते हैं किसे औ ममता कैसी चीज़ है
कोई उन बच्चों से पूछे जिनकी मर जाती है माँ
अब दूसरा रुख देखिये ग़ज़ल का..........
फेर लेते हैं नज़र जिस वक़्त बेटे और बहु
अजनबी अपने ही घर में हाय बन जाती है माँ
हमने ये भी तो नहीं सोचा अलग होने के बाद
जब दिया ही कुछ नहीं हमने, तो क्या खाती है माँ
ज़ब्त तो देखो के इतनी बेरुखी के बावजूद
बद्दुआ देती है और न ही पछताती है माँ
बाद मर जाने के फिर बेटे की खिदमत के लिए
भेस बेटी का बदल कर घर में फिर आती है माँ
- रज़ा सिरसवी