Wednesday, September 30, 2015

जब थकके सो जाती है माँ



मौत की आगोश में, जब थकके सो जाती है माँ
तब कहीं जाकर "रज़ा" थोडा सुकूँ पाती है माँ
 
फ़िक्र में बच्चों की कुछ इस तरह घुल जाती है माँ
नौजवां होते हुए बूढी नज़र आती है माँ
 
कब ज़रूरत हो मेरी बच्चों को इतना सोचकर
जागती रहती हैं आँखें और सो जाती है माँ

पहले बच्चो को खिलाती है सुकूनो चैन से
बाद में जो कुछ बचा वो शौक़ से खाती है माँ
 
मांगती कुछ भी नहीं नहीं अपने लिये अल्लाह से
अपने बच्चों के लिए दामन को फैलाती है माँ
 
प्यार कहते हैं किसे औ ममता कैसी चीज़ है
कोई उन बच्चों से पूछे जिनकी मर जाती है माँ
 
अब दूसरा रुख देखिये ग़ज़ल का..........

फेर लेते हैं नज़र जिस वक़्त बेटे और बहु
अजनबी अपने ही घर में हाय बन जाती है माँ
 
हमने ये भी तो नहीं सोचा अलग होने के बाद
जब दिया ही कुछ नहीं हमने, तो क्या खाती है माँ
 
ज़ब्त तो देखो के इतनी बेरुखी के बावजूद
बद्दुआ देती है और न ही पछताती है माँ
 
बाद मर जाने के फिर बेटे की खिदमत के लिए
भेस बेटी का बदल कर घर में फिर आती है माँ

- रज़ा सिरसवी

किताबें झांकती हैं बंद अलमारी के शीशों से



किताबें झांकती हैं बंद अलमारी के शीशों से
बड़ी हसरत से तकती हैं
महीनों अब मुलाकातें नहीं होती
जो शामें इनकी सोहबतों में कटा करती थीं, अब अक्सर
गुज़र जाती हैं 'कम्प्यूटर' के पर्दों पर
बड़ी बेचैन रहती हैं किताबें...
 
इन्हें अब नींद में चलने की आदत हो गई हैं,
बड़ी हसरत से तकती हैं,
जो क़दरें वो सुनाती थीं.
कि जिनके 'सैल'कभी मरते नहीं थे
वो क़दरें अब नज़र आती नहीं घर में
जो रिश्ते वो सुनती थीं
वह सारे उधरे-उधरे हैं
 
कोई सफ़्हा पलटता हूँ तो इक सिसकी निकलती है
कई लफ्ज़ों के माने गिर पड़ते हैं
बिना पत्तों के सूखे टुंडे लगते हैं वो सब अल्फाज़
जिन पर अब कोई माने नहीं उगते
बहुत सी इसतलाहें हैं
जो मिट्टी के सिकूरों की तरह बिखरी पड़ी हैं
गिलासों ने उन्हें मतरूक कर डाला
ज़ुबान पर ज़ायका आता था जो सफ़हे पलटने का
अब ऊँगली 'क्लिक'करने से अब
झपकी गुज़रती है
 
बहुत कुछ तह-ब-तह खुलता चला जाता है परदे पर
किताबों से जो ज़ाती राब्ता था,कट गया है
कभी सीने पे रख के लेट जाते थे
कभी गोदी में लेते थे,
कभी घुटनों को अपने रिहल की सुरत बना कर
नीम सज़दे में पढ़ा करते थे,छूते थे जबीं से
 
वो सारा इल्म तो मिलता रहेगा बाद में भी
मगर वो जो किताबों में मिला करते थे सूखे फूल
और महके हुए रुक्के
किताबें मांगने,गिरने,उठाने के बहाने रिश्ते बनते थे
उनका क्या होगा ?
वो शायद अब नहीं होंगे !

- गुलज़ार साब

हश्र हो अहमद रज़ा के साथ




है आरजू कि नाते नबी उम्र भर पढ़ें
ताकि हमारा हश्र हो अहमद रज़ा के साथ 

-    - राही बस्तवी

हम किसके हैं




ऐ ! ख़ुदा फिर ये अज़ाब और ये सितम किसके हैं
तू तो इस बात से वाक़िफ है कि हम किसके हैं
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-  -  राहत इन्दौरी