Saturday, May 31, 2014

कितने रूप अभी धरने हैं

कितने रूप अभी धरने हैं
कितने नाम अभी खोने हैं
पूछ रहा हूँ मैं दर्पन से
क्या-क्या परिवर्तन होने हैं

दर्पन जिसमें  दुनिया देखी
स्वप्न सजाये साथ तुम्हारे
कभी नील झीलों में तैरे
कभी गगन में पंख पसारे

और गगन में उड़ते -उड़ते
अनायास बंट गयीं दिशाएं
संभव है फिर कहीं मिलें हम
अब केवल परिचय ढ़ोने हैं

दर्पन जिसमें हमने अपने
कैसे-कैसे रूप निहारे
कभी किसी की ऊँगली थामी
कभी किसी के केश संवारे

किन्तु अचानक जाने किससे
भूल हो गयी दर्पन चटका
चिट्खे दर्पन में परछाईं
के दो टुकड़े ही होने हैं

दर्पन जिसमें भीगी आँखें
लेते विदा दिखे दो तारे
दोनों गुमसुम सोच रहे थे
हम क्या जीते - हम क्या हारे

एक अनुत्तर प्रश्न स्वयं से
आखिर ऐसा क्यों होता है
अब तक जान नहीं पाया हूँ
ये किसके जादू टोने हैं

- राजेन्द्र तिवारी
10.05.99

सपनों का मानचित्र

सपनों के मानचित्र
अपनों ने फाड़ दिए
यादों के ढेर पर रह गयी
काग़ज़ के टुकड़े  सी ज़िन्दगी

बंधन के मरू-थल में
चंचल हरियाली सी
सुधियों के सावन में
बनती मेघाली सी

हल्की सी भारी सी
झोंके हर मौसम के
आंसू के आखर में सह गयी
काग़ज़ के टुकड़े  सी ज़िन्दगी

मन के अंधियारे में
आशाएं फूटी हैं
बुनियादें जीवित हैं
दीवारें टूटी हैं

चन्दन की घाटी में
विषधर भी होते हैं
चुपके से सच्चाई कह गयी
काग़ज़ के टुकड़े  सी ज़िन्दगी

पीछे से दूषित है
आगे से दर्पण है
हँसना क्या रोना क्या
सुख-दुःख ही जीवन है

फूलों की गलियों में
कांटे भी होते हैं
शावों की धार में बह गयी
काग़ज़ के टुकड़े  सी ज़िन्दगी

- हरिलाल
10.05.99

बादलों के दल नहीं थे

पेड़ में बस पत्तियां थीं फल नहीं थे
इसलिए तोते यहाँ पर कल नहीं थे

हम अकेले ही चले थे नाव लेकर
हंसने वाले थे बहुत संबल नहीं थे

खेत सूखे थे मगर जोते हुए थे
पर उमड़ते बादलों के दल नहीं थे

आ गए फिर लौटकर जब स्वागतम है
तुम नहीं थे, आज वाले पल नहीं थे

कल कुहासा था, अँधेरा था, दिए थे
पूर्णिमा के पल्लवी शतदल नहीं थे

आज उनके द्वारा तोरण से सजे हैं
जिनके तन पर कल यहाँ वल्कल नहीं थे

- नमालूम

रात है

आज सकुचाने की नहीं
शर्माने की नहीं
लजाने की नहीं
आज तो
हंसने हंसाने की रात है

चाँद को  मुक्त कर दो
घूंघट से
आज तो
चांदनी में नहीं की रात है

रीता रूप
कंचन काया
केश यौवन
और कितना तरसाओगी
आज तो
रस बरसाने की रात है

दिल को धड़कने दो
जोरों से
भावनाओं को मचलने दो
अधरों को भी मत टोको
आज तो बांहों में
अमृत पिलाने की रात  है

- नमालूम

सत्रहवां सावन

तेरे जीवन का सत्रहवां सावन
कितना सुन्दर कितना पावन

तेरे रूप में आया निखार
जब आई इस सावन की फुहार

तेरी सूरत कितनी भोली
लगती जैसे नशे की गोली

जब बजते तेरे पायल
कर देते मेरे दिल को घायल

किस से पाई है तुमने ये दौलत
सब है इस सावन की बदौलत

यह सावन हमेशा बना रहे
तेरा रूप हमेशा खिला रहे

- नमालूम
10.05.99

कैसे बताऊँ मैं तुम्हें

कैसे बताऊँ मैं तुम्हें
मेरे लिए तुम कौन हो
मेरे लिए तू धर्म है
मेरे लिए ईमान है
तुम्हीं इबादत हो मेरी
तुम्हीं तो चाहत हो मेरी
तुम्हीं मेरा अरमान हो

तकता हूँ मैं हर पल जिसे
तुम्हीं तो वो तस्वीर हो
तुम्हीं मेरी तकदीर हो
तुम्हीं सितारा हो मेरा
तुम्हीं नजारा हो मेरा
यों ध्यान में मेरे हो तुम
जैसे मुझे घेरे हो तुम

पूरब में तुम
पश्चिम में तुम
उत्तर में तुम
दक्षिण में तुम
सारे मेरे जीवन में तुम
हर पल में तुम
हर जिन में तुम

मेरे लिए रस्ता भी तुम
मेरे लिए मंजिल भी तुम
मेरे लिए सागर भी तुम
मेरे लिए साहिल भी तुम
मैं देखता बस तुमको हूँ
मैं सोचता बस तुमको हूँ
मैं जानता बस तुमको हूँ
मैं मानता बस तुमको हूँ

तुम्हीं मेरी पहचान हो
कैसे बताऊँ मैं तुम्हें
देवी हो तुम मेरे लिए
मेरे लिए भगवान हो
कैसे बताऊँ मैं तुम्हें
मेरे लिए तुम कौन हो
कैसे बताऊँ !!

- नमालूम

ज़िन्दगी की धूप

ये जो तुम्हारा रूप है
ये ज़िन्दगी की धूप है
चन्दन से तरसा है बदन
बहती है जिसमें एक अगन
ये सोखियाँ ये मस्तियाँ


तुमको हवाओं से मिलीं
जुल्फें घटाओं से मिलीं
होठों पे कलियाँ खिल गयीं
आँखों को झीलें मिल गयीं
चेहरे में सिमटी चांदनी
आवाज़ में है रागनी


शीशे से जैसा रूप है
फूलों के जैसा रंग है
नदियों के जैसी चाल है
क्या हुस्न है क्या हाल है


ये जिस्म की रंगीनियाँ
जैसे हजारों तितलियाँ
बांहों की ये गोलाईयां
आँचल की ये परछाईयाँ
ये नगरियाँ हैं ख्वाब की


कैसे बताऊँ मैं तुम्हें
हालत दिले बेताब की
कैसे बताऊँ मैं तुम्हें
मेरे लिए तुम कौन हो
कैसे बताऊँ !!


- नमालूम

कैसे बताऊँ मैं तुम्हें

कैसे बताऊँ मैं तुम्हें
मेरे लिए तुम कौन हो
कैसे बताऊँ
तुम धड़कनों का गीत हो
जीवन का तुम संगीत हो
तुम ज़िन्दगी
तुम बंदगी
तुम रौशनी
तुम ताजगी
तुम हर ख़ुशी
तुम प्यार हो
तुम प्रीत हो
तुम मनमीत हो

आँखों में तुम
यादों में तुम
साँसों में तुम
आँहों में तुम
नींदों में तुम
ख्वाबों में तुम

तुम हो मेरी हर बात में
तुम हो मेरे दिन रात में

तुम सुबह में
तुम शाम में
तुम सोच में
तुम काम में

मेरे लिए पाना भी तुम
मेरे लिए खोना भी तुम
मेरे लिए हँसना भी तुम
मेरे लिए रोना भी तुम

जाऊं कहीं देखूं कहीं
तुम्हीं हो वहां
तुम्हीं हो वहां
कैसे बताऊँ मैं तुम्हें
तुम गीत तो नहीं
संगीत तो नहीं
कैसे बताऊँ मैं तुम्हें
मेरे लिए तुम कौन हो

- नमालूम

मेरा ख़त पढ़ के

मेरा ख़त पढ़ के हैरत है सबको
प्यार में हमने क्या लिख दिया है
जिसको लिखना था जालिम सितमगर
उसको जाने वफ़ा लिख दिया है

इतना उकता गया है वो खुद से
ज़हर को भी दवा लिख दिया है
ऐसी क्या गुजरी है उसपे
जिसने ज़िन्दगी को सजा लिख दिया है

मेरे महबूब की दिल्लगी भी कोई देखे
तो कितनी हंसी है
ग़ैर का ख़त लिफ़ाफे में रखकर
उसपे मेरा पता लिख दिया है

प्यार झूठा मुहब्बत भी झूठी
अब किसी पे भरोसा न करना
शहर की आज दीवार पर ये
एक पागल ने क्या लिख दिया है

क्या बताऊँतुम्हें आज अशहर
मेरा महबूब कितना खफा है
नाम काग़ज़ पे लिख-लिख के मेरा
हर जगह बेवफा लिख दिया है
मेरा ख़त पढ़ के हैरत है सबको
प्यार में हमने क्या लिख दिया है

- नमालूम
10.05.99

उजड़ने का ग़म

दिल अपना किस को दें कोई दिलदार तो मिले
हम दिल को बेचते हैं खरीदार तो मिले

कोई तो हो जो दिल के उजड़ने ग़म करे
कोई उदासियों का खरीदार तो मिले

दिल क्या है , तुझ पे ज़िन्दगी कर दूंगा फ़िदा
तेरी नज़र में प्यारका इक़रार तो मिले

हम उनके सारे जुल्मो सितम भूल जायेंगे
वो बेवफा कहीं हमें एक बार तो मिले

कितने ही उसकी याद में सावन गुजर गए
शौकत लिखे हैं जिसको वो एक बार तो मिले

हम लेके दिल में आरजू भटकें कहाँ-कहाँ
इस बेवफा जहाँ में कहीं प्यार तो  मिले

- नमालूम

मुझे मेरे यार मिले

तेरा प्यार मुझे मेरे यार मिले
फिर दुनिया मिले चाहे न मिले
तेरे प्यार का दीप जले दिल में
फिर शम्मा चाहे जले न जले

मुझको तमन्ना तेरी वफ़ा की
मैं तो हूँ तेरे प्यार की प्यासी
जन्मों जनम के हमतुम साथी
मेरे प्यारा में तू मेरे साथ चले
फिर दुनिया चाहे चले न चले

रंग दूँगी तुझको प्यार के रंग में
ढल जाउंगी तेरे अंग-अंग में

प्यार मिला मुझे तेरे ही दम से
तेरे होठों की सुर्खी यों ही खिले
फिर कलियाँ चाहे खिले न खिले

- नमालूम 

दिन है सूना

जब से तूने निगाह फेरी है , दिन है सूना तो रात अधूरी है
चाँद भी अब नज़र नहीं आता सितारे भी कम निकलते हैं
याद में तेरी रात-रात भर जागकर हम करवटें बदलते हैं

लुट गयी वो बहार की महफ़िल
लुट गयी हमसे प्यार की मंजिल
ज़िन्दगी की उदास रातों में तेरी यादों के साथ चलते हैं

तुझको पाकर हमें बहार मिली
तुसे से छुटकर ये बात खुली
वाहवाही चमन के फूलों को अपने पैरों से खुद मचलते हैं

क्या कहें तुझसे क्यूँ हुयी तुझसे ये दूरी
हम समझते हैं ये तो थी मेरी मजबूरी
तुझको मालूम क्या तेरी ख्वाबों की नगरी
दिल के ग़म आसुओं में ढलते हैं

हर घड़ी दिल में, तेरी उल्फत के दिए जलते हैं
याद में तेरी रात-रात भर जागकर हम करवटें बदलते हैं

- नमालूम

मुहब्बत

मुहब्बत एक खूबसूरत फूल है
जो हर जानदार के दिल में खिलता है
इसमें से प्यार की खुशबू आती है
ये नफरत की तेज धुप से कुम्हला जाता है
मुहब्बत एक खूबसूरत जज्बे का नाम है

- नमालूम

पढ़ लेती है नज़र

पढ़ लेती है नज़र , हो जाती है खबर
जो दिल में छुपा होता है , सूरत पे लिखा होता है

मेरी आँखों में कुछ भी नहीं तेरी तस्वीर है
तेरी जुल्फों में उलझी हुयी मेरी तकदीर है

अब देख मेरी तकदीर का क्या फैसला होता है
बोल पड़ती हैं आँखें, कभी बनके दिल की जुबां

इन किताबों में लिखी हैं प्यार की कहानियाँ
जब पैर में काँटा चुभता है दर्द बड़ा होता है

तुम सा इस जहाँ में कोई खूबसूरत नहीं
कुछ भी कहने सुनने की अब जरूरत नहीं

कुछ कहने सुनने से क्या होता है
जो दिल में छुपा होता है , सूरत पे लिखा होता है

- नमालूम

सारे सपने कहीं खो गए

सारे सपने कहीं खो गए
हाय हम क्या से क्या हो गए
दिल से तन्हाई का दर्द जीता
क्या कहें हम पे क्या क्या न बीता
तुम न आये मगर जो गए
हाय हम क्या से क्या हो गए

तुमने हमसे कही भी जो बातें
आज पूरी हुयी ग़म की रातें
तुमसे मिलने के दिन तो गए
हाय हम क्या से क्या हो गए

कोई शिकवा न कोई गिला है
हमको कब तुमसे ये ग़म मिला है
हाँ नसीब अपने ही सो गए
हाय हम क्या से क्या हो गए
सारे सपने कहीं खो गए
हाय हम क्या से क्या हो गए

- नमालूम

तुम्हारा नाम लिखा है

तेरे दीवाने ने तेरा मुहब्बत नाम रखा है
मेरा दिल चीर कर देखो तुम्हारा नाम लिखा है
तेरी दीवानी ने तेरा चाहत नाम रखा है
मेरा दिल चीर कर देखो तुम्हारा नाम लिखा है

गजब का रंग लायी है सनम दीवानगी मेरी
यहाँ तक खींच लायी है तुझे ये आशिकी मेरी
कसम है प्यार की मुझको वफ़ा मैंने न निभाई है
तेरे ही नाम की मेंहदी इन हाथों में रचाई है
मेरी चाहत ने ये पहला तुझे सलाम लिखा है

कभी पूछा नहीं तूने ये मुझसे तू मेरा क्या है
अगर पूछे तो मैं कह दूँ मुहब्बत का मसीहा है
तुम्हें चाहा है इतना खुद को चाहा नहीं मैंने
इसका अंजाम क्या होगा कभी सोचा नहीं मैंने
तेरे हाथों में जानेमन मेरा अंजाम लिखा है
मेरा दिल चीरकर देखो तुम्हार नाम लिखा है

- नमालूम
07.09.99

कमरे पर अकेला शांत बैठा था

कमरे पर अकेला शांत बैठा था
कुछ लिखने की अभिलाषा थी चाहत थी
क्या लिखूं समझ में नहीं आता था
किताबें उलटी, पलटी, देखा खिड़की खोली
दरवाजे खोले और इधर उधर झाँका
कुछ समझ में नहीं आया, दोस्त से पूछा
उत्तर दिय कहानी कैसे लिखते हैं
मुझे नहीं मालूम परन्तु इतना
जरूर मालूम है जब भी विचारक
कुछ लिखता है खुले आसमान के नीचे

जाता है, तलाश कर कमरे के बाहर
रोड के किनारे गया हर भौंपो वाले
वाहन को हाथ दिया, खुले आसमान तक
पहुँचाने का आग्रह किया निराश रहा
अन्तोगत्वा एक टेम्पो वाले से भी यही जिक्र किया
उसने टेम्पो रोका उसका धुंआ
मुख पर फेंका, मैं बौखला गया
वापसकमरे पर आया
बेचैनी थी
कमरे से बाहर मैदान पर गया
रात्री 14:30 का समय था
ठंडा मौसम था
बदन पे पतला शौल था
नीचे अगल बगल देखा
कुछ समझ में नहीं आया
तब आसमान की ओर तिरछी निगाहें रखीं
समझ में आ गया
और कहानी लिख दी-----

- उमेश मिश्रा
09.05.99


नहीं ऐसे नहीं

नहीं,  ऐसे नहीं
इस तरह नहीं पढ़ी जाती कविता
घोड़े पर सवार
सचमुच चाहते हो पढ़ना
तो पढ़ो उसे
उस दिन की तरह
जिस दिन पहली बार
पढ़ा था तुमने
उसकी आँखों में
अपना चेहरा

- गोविन्द

मैं दिखावा कभी नहीं करता

मैं दिखावा कभी नहीं करता
वैसे दिख जाये तो क्या कीजै
यों मुझे रोकथाम भाती है
पर तबियत भी भला क्या तोड़ें
मैंने बैसाख जेठ का सूरज
दोपहर बन के झेल डाला है
अब अगर छांव प् गया हूँ तो
उसकी ममता किस तरह छोड़ूँ

- गोपेश

मेरी पसंद

मन के द्वार पहुंचकर भी कुंठाएं लौट गयीं
मन की अपनी सुघड़ आस्था
कजराए विश्वास
धरती जिसकी गंधवती
फूलों का है आकाश
गीतों का उल्लास देख पीड़ाएं लौट गयीं
संगमरमरी देह सपन की
अंगड़ाई न थमे
कटुता की काई उस पार तब
कैसे कभी जमे
शगुन लिए आने वाली बाधाएं लौट गयीं
तैर रहे संवेदन सारे
गलबहियां डाले
भीतर बजते हैं मिठास के
मांदल मतवाले
सन्नाटे की सब उदास छायाएं लौट गयीं
मन के द्वार पहुंचकर
कुंठाएं लौट गयीं

- इंदिरा परमार
09.05.99

जनम जनम की प्यास

मेरे  प्रियतम
है क्या मेरा अपना
जो कर दूँ तुम्हें अर्पित
जब हर रात्री , हर भोर
हर क्षण , हर पल, हर ओर
तुम ही तुम हो
तुम स्वयं अपनी माया
हो स्वयं अपनी छाया
है जब जगत द्वेत से वंचित
तब कैसे क्या करूँ समर्पित !

वाद्द् तुम्हारे
गीत तुम्हारे
स्वर तुम्हारे
भाव भी नहीं हमारे
ब्रह्मांड इतना विराट
कि.-----------
कहीं नहीं दिखते पाट
बह रही ऐसी चेतन रसधार
देह का नहीं बचा आधार
फिर कैसे कोई डूबे
कैसे उबरे
अब तो,
सभी कुछ है -
केवल तुम्हारे सहारे
क्षितिज में समा गए किनारे
मुझे नहीं आता वंदन
न आता करना अभिनंदन
तुम ही चन्दन-
तुम ही धूप
तुम हो वाणी
फिर भी मूक
तुम ही हर रूप
तुम ही बनते अरूप
तुम जग के श्रृंगार
हो तुम कण -कण की पुकार
करो तुम -
मुझ पर उपकार
अब कर लो
मुझे स्वीकार
अंतस भेद मिटा दो
जनम-जनम की प्यास बुझा दो।

- नरेन्द्र मोहन

09. 05. 99


Friday, May 30, 2014

एक लहर

एक लहर
जो निकलती अनायास
पाताल के गर्भ से
और छू लेती
गौरीशंकर को
डुबो देती समस्त संकल्पों को
तोड़ देती
पर्वतों के बाँध
मात्र स्पर्श से जिसके
पिघल जाता
तप का हिमालय
और मिलन की अभिलाषा
फिर जाग जाती
मैं सोचता था
समष्टि के महासागर को
मैं बाँध लूँगा
अपने तप से
कामना को बाँध लूँगा
पर अब तो
उसकी स्मृति भी
कर देती विचलित
चेतना हो जाती व्यथित
काश मैं बता पाता
इस व्यथा को
उन सांस लेते
पत्थरों के बुतों को
जो पुस्तकें लिखते
धर्म ग्रन्थ बांचते
और देते व्यवस्था
थोपी गयी मान्यताओं से
जीवित कर देते
रूढ़ियों का वृत्तासुर
जो नित्य
हर क्षण , हर पल
हांक रहा
घृणा का रथ
निगल रहा, सृजन का पथ

- नरेन्द्र मोहन

09.05.99

सत्य का निवास

आपाधापी और होड़
जीवन का हर मोड़
जब है तुम्हारा ही दिया
तब मैं ही क्यों करूँ भेद
कि.................
क्या है अमृत और क्या विष
जो तुमने दिया
वही मैंने पिया
अंकुर फूटें, न फूटें
वृक्ष बनें या कोपलें रूठें
जीवन लतिका मुरझाये
या सूख जाये
जब सब है-
तुम्हारी इच्छा का ही फल
फिर कैसा आज, कैसा कल
तुम्हारी इच्छा ...........
तुम्हारी ही दी दीक्षा
जो तुम्हारे किसी रूप से
छाया या धूप से
चाहे अनचाहे मिली
और मैंने ग्रहण कर ली
बिना  यह पहचाने
कहाँ है सत्य  का निवास
अथवा है असत्य का वास
फिर तुम हो दूर क्यों?
अब तो मत छोड़ो
मेरा साथ
बढाओ अपना हाथ
मुझे अपनाओ
सारे रहस्य समझाओ
जीवन और मृत्यु
है तुम्हारा रूप
जो धूप छाँव बन आता
और बिना पूछे लौट जाता
तुम्हारे ही गर्भ में
समा जाता

- नरेन्द्र मोहन
9.05.99 

पुकार

जब काल का प्रवाह
कर देता अहं क्षार-क्षार

तब जहाँ से मिल सके
जीवन का अधिकार
वही है मुझे स्वीकार
करना है उससे प्यार
बस चाहिए, उसका ही हाथ
उसका ही विश्वास
वही है.......

जन्म जन्मान्तरों की आस
वही है सर्वरक्षक
कलुष भक्षक
अनंत-अकाल
बिन लय- बिन ताल
जानता सभी सुरों की चाल
बिन गाये
गाता सुगम संगीत
कराता आनंद की प्रतीति
बना लेता सर्व को मीत
हो स्थिर .....

जो अहर्निश डोलता
हर द्वार खोलता
बन अमृत झरता
शून्य में सागर भरता
देकर काल को अभयदान
कराता स्वयं की पहचान
जानूं न जानूं
भले ही न पहचानूँ
पर .............

मुझे करने दो
उसका ही वंदन
उसका ही अभिनन्दन
वही तो है -
मेरे जीवन का आधार
जन्म - जन्मान्तरों की पुकार

- नरेन्द्र मोहन

किसी से कम नहीं हैं

मेरे भी ग़म किसी से कम नहीं हैं
मगर रोने का ये मौसम नहीं है

मेरे जख्मों को जो थोड़ा सा भर दे
यहाँ ऐसा कोई मरहम नहीं है

तड़पते देखा है मौजों को जबसे
बिछड़ने का किसी से ग़म नहीं है

- नमालूम

जो दुआ न करे

वह दिल ही क्या तेरे मिलने की जो दुआ न करे
मैं तुझको भूल के जिंदा रहूँ ख़ुदा न करे

रहेगा साथ तेरा प्यार ज़िन्दगी बनकर
ये बात और है मेरी ज़िन्दगी वफ़ा न करे

ये ठीक है नहीं नरता कोई जुदाई में
ख़ुदा किसी को किसी से मगर जुदा न करे

सुना है उसकी मुहब्बत दुआएं देती हैं
जो दिल में चोट खाए मगर गिला न करे

- नमालूम

Thursday, May 29, 2014

मैं जिस दिन भुला दूँ

मैं जिस दिन भुला दूँ तेरा प्यार दिल से
वो दिन आखिरी हो ज़िन्दगी का
ये आँखें उसी रात हो जाएँ अंधी
जो तेरे सिवा देखें सपना किसी का ...

मुझे अपने दिल से उतरने न देना
मैं खुशबू हूँ इसको बिखरने न देना
हमेशा रहूँ मैं तेरी बाजुओं में
न टूटे ये बंधन कभी दोस्ती का

मेरी धड़कनों में मुहब्बत है तेरी
मेरी ज़िन्दगी अब अमानत है तेरी
तमन्ना है ये
निशां हो वहां पर मेरी बंदगी का

- नमालूम

मेरी इक्कावन कविताएँ से ......

1.  आदमी सिर्फ आदमी होता है

आदमी न ऊंचा होता है, न बड़ा होता है
आदमी सिर्फ आदमी होता है
ऊंचे पहाड़ पर पेड़ नहीं लगते, पौधेनहीं उगते
न ही घास जमती है
जमती है तो सिर्फ वर्फ
जो कफ़न की तरह सफ़ेद होती है
और मौत की तरह ठंडी होती है

2. तन पर पहरा, भटक रहा मन
साथी है केवल सूनापन
मैं रोता आसपास जब
कोई नहीं होता है
दूर कहीं कोई रोता है

3. लानत उनकी भरी जवानी पर
जो सुख की नींद सो रहे
लानत है हम कोटि -कोटि
किन्तु किसी के चरण धो रहे

- अटल बिहारी वाजपेयी
27.04.99 

Wednesday, May 28, 2014

विपत्ति को संपत्ति बनाईये

एक चित्रकार ने एक  चित्र बनाया जिसमें सर्प, मोर, हिरन, और शेर एक साथ एक वृक्ष की छाया में बैठे थे. चित्र के नीचे यह पंक्ति लिखी हुयी थी-
' कहलाने एकत बसत अहि -मयूर-मृग-बाघ'.

जयपुर के राजा मिर्जा जय सिंह ने उस चित्र को खरीद लिया. और अपने राज कवि बिहारी लाल से कहा कि उस दोहे की पूर्ती करें. बिहारी लाल ने तत्काल यह पंक्ति लिख कर दोहे को पूरा कर दिया-
' जगत तपोवन सो कियो दीरध दाघ निदाघ'

कवि का तात्पर्य स्पष्ट था कि कड़ी गर्मी ने जगत को तपोवन के समान पवित्र कर दिया है और ये पशु अपना सहज बैर भाव भूलकर एक वृक्ष की छाया में बैठ गए हैं.

विपत्ति के समय पशु पक्षी भी सहज बैर भाव भूल जाते हैं. ऐसी बात नहीं है, मनुष्य भी ऐसा करते हुए देखे जाते हैं. देश में विदेशी आक्रमण की दशा में विभिन्न राजनीतिक दल, सांप्रदायिक दल आदि अपना पारस्परिक मतभेद भुलाकर विदेशी आक्रान्ता के विरुद्ध एक जुट हो जाते हैं. आग लगने पर, भूचाल आदि दैवी आपदा आने पर सब लोग एक दुसरे की मदद करते हुए देखे जाते हैं. और तो और विरोधी अथवा जानी दुश्मन के पुत्र के निधन के शोक पर लोग आंसू बहते हुए देखे जाते हैं. इस सन्दर्भ में हम सन 1947 में भारत विभाजन के अवसर पर  तथाकथित शरणार्थियों के पलायन की घटना की चर्चा करना चाहेंगे. कई-कई हजार स्त्री पुरुष कई-कई दिनों तक एक साथ रहने को विवश हुए थे. परन्तु उस अवसर पर चोरी, अपहरण, बलात्कार आदि की एक भी घटना नहीं घटी आदि .

व्यक्तिगत जीवन में भी विपत्ति हमारे मनोभावों का परिष्कार करती हुयी देखि जाती है.  विपत्ति में हम बैर भाव भूलते ही हैं हम अपने दोषों को दूर करने का संकल्प करते हुए देखे जाते हैं. इतना ही नहीं विपत्ति अथवा दुःख के समय हम भगवान   का स्मरण जैसा पवित्र कार्य करने लगते हैं. वह एक विपत्ति का ही अवसर था जब महाराणा प्रताप को मरणासन्न अवस्था में देखकर उनके खून का प्यासा छोटा भाई समस्त शत्रु भाव को भूलकर उनके चरण में गिर पड़ा था. इस सन्दर्भ में महाभारत का यह कथन मनन करने योग्य है- विपत्ति के आने पर अपनी रक्षा के लिए व्यक्ति को अपने पड़ोसी शत्रु से भी मेल कर लेना चाहिए. विपत्ति के भावात्मक पक्ष को लक्ष्य करके लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने लिखा है कि -
' कष्ट और विपत्ति मनुष्य को शिक्षा देने वाले श्रेष्ठ गुण है, जो मनुष्य साहस के साथ उन्हें सहन करते हैं वे अपने जीवन में विजयी होते हैं'.

विपत्ति के हमारा मन प्रायः अंतर्मुखी हो जाता है, हम विपत्ति के कारणों पर तथा उसके निवारण के उपायों पर गंभीरता पूर्वक विचार करने लगते हैं. और प्रायः ऐसा होता है कि विपत्ति की अग्नि में तपकर हमारे कुछ सद्गुण उभरकर आ जाते हैं. डिजरैली ने बहुत ठीक कहा है कि विपत्ति सहना कोई शिक्षा नहीं है. यह सत्य तो सर्वविदित है कि विपत्ति के समय हमें शत्रु मित्र की पहचान भली प्रकार से हो जाती है. प्लूटार्क नामक विचारक का यह कथन मनन करने योग्य है -

' विपत्ति ही केवल ऐसी तुला है जिस पर हम मित्रों को तौल सकते हैं'
गोस्वामी तुलसीदास का यह कथन उल्लेखनीय है-
' धीरज, धर्म,मित्र ,अरु नारी
आपातकाल परखिये चारी '
अर्थात विपत्ति के समय ही अपने और पराये की पहचान हो जाती है.

विपत्ति वास्तव में एक बहुत बड़ी संपत्ति है. वह हमारे मनोविकारों का परिष्कार करके मन में सद्भाव, सहयोग, शुभ संकल्प आत्म विश्वास आदि श्रेष्ठ गुणों को विकसित करती है.

विपत्ति हमारे मन के मेल को काटती है और हमें भावात्मक दृष्टि प्रदान करती है.

उपन्यास सम्राट प्रेमचंद का यह कथन हमारा मार्गदर्शक होना चाहिए-

' विपत्ति में भी जिस ह्रदय में सद्ज्ञान न हो, वह ऐसा सूखा हुआ वृक्ष है जो पानी पाकर पनपता नहीं , बल्कि सड़ जाता है'

27.04.99

मैं तुम्हें प्यार नहीं करती हूँ

मैं तुम्हें प्यार नहीं करती हूँ,
 न ! मैं तुम्हें प्यार नहीं करती हूँ .
फिर भी मैं उदास रहती हूँ. जब तुम पास नहीं होते हो. और मैं उस नीले चमकदार आकाश से भी ईर्ष्या करती हूँ जिसके नीचे तुम खड़े होगे और जिसके सितारे तुम्हें  देख सकते हैं.

मैं तुम्हें प्यार नहीं करती हूँ- फिर भी तुम्हारी बोलती हुयी आँखें जिनकी नीलिमा में गहराई, चमक और अभिव्यक्ति है- मेरी निर्निमेष पलकों और जागते अर्धरात्री के आकाश में नाच जाती है ..

और किसी की आँखों के बारे में ऐसा नहीं होता .

न मुझे मालूम है कि मैं तुम्हें प्यार करती हूँ, लेकिन फिर भी कोई शायद मेरे साफ़ दिल पर विश्वास नहीं करेगा. और अक्सर मैंने देखा है कि लोग मुझे देखकर मुस्करा देते हैं क्योंकि मैं उधर एकटक देखती हूँ, जिस पर तुम आया करते हो.

- लेडी नार्टन

Tuesday, May 27, 2014

' गुनाहों का देवता ' से -

मानव जाति दुर्बल नहीं है. अपने विकास क्रम में वह उन्हीं संस्थाओं, रीति रिवाजों और परम्पराओं को रहने देती है जो उसके असितत्व के लिए बहुत आवश्यक होती है. अगर वे आवश्यक न हुयी तो मानव उनसे छुटकारा मांग लेता है.

प्रेम विवाह अक्सर असफल होते हैं, लेकिन सम्भव है वह प्रेम न होता हो. जहाँ सच्चा प्रेम होगा वहां कभी असफल विवाह नहीं होंगे.

घवराओ न देवता, तुम्हारी उज्जवल साधना में कालिख नहीं लगाउंगी.अपने आँचल में पोंछ लूंगी.

अक्सर कब, कहाँ और कैसे मन अपने को हार बैठता है. यह खुद हमें पता नहीं लगता. मालूम तब होता है जब जिसके कदम पर हमने सर रखा है वह झटके से अपने कदम घसीट ले. उस वक़्त हमारी नींद टूट जाती है और तब जाकर हम देखते हैं कि अरे हमारा सिर तो किसी के क़दमों पर रखा हुआ था. और उनके सहारे आराम से सोते हुए हम सपना देख रहे थे कि हमारा सिर कहीं झुका ही नहीं.

 मैं तुम्हारे मन को समझता हूँ सुधा ! तुम्हारे मन ने जो तुमसे नहीं कहा, वह मुझसे कह दिया था. लेकिन सुधा, हम दोनों एक दुसरे की ज़िन्दगी में क्या इसीलिए आये कि एक दूसरे को कमजोर बना दें. या हम लोगों ने स्वर्ग की ऊचाईयों पर बैठकर आत्मा का संगीत सुना सिर्फ इसलिए कि उसे अपने ब्याह की शहनाई में बदल दें.

तुम गुस्सा मत हो, दुखी मत हो, तुम आज्ञा दोगे तो मैं कुछ भी कर सकती हूँ, लेकिन हत्या करने से पहले यह तो देख लो कि मेरे ह्रदय में क्या है.

जीवन में अलगाव, दूरी, दुःख और पीड़ा आदमी को महान बना सकती है. भावुकता और सुख हमें ऊंचे नहीं उठाते.

सुधा के आंसू जैसे नसों के सहारे उसके ह्रदय में उतर गए और जब ह्रदय डूबने लगा तो उसकी पलकों पर उतरा आये.

सुधा के मन पर जो कुछ भी धीरे-धीरे मरघट की उदासी की तरह बैठता जा रहा था. और चंदर अपने प्यार से , अपनी मुस्कानों से , अपने आंसुओं से धो देने के लिए व्याकुल हो उठा था. लेकिन यह ज़िन्दगी थी जहाँ प्यार हार जाता है, मुस्कानें हार जाती हैं. आंसू हार जाते हैं.- तश्तरी, प्याले,कुल्हड़ , पत्तलें ,कालीनें , दरियां और बाजे जीत जाते हैं. जहाँ अपनी ज़िन्दगी की प्रेरणा के आंसू गिनने के बजाये कुल्हड़ और प्याले गिनवाकर रखने पड़ते हैं और जहाँ किसी आत्मा की उदासी को अपने आंसुओं से धोने के बजाये पत्तलें धुलवाना ज्यादा महत्वपूर्ण होता है. 

मुझे किसी का डर नहीं, तुम जो दंड दे चुके हो, उससे बड़ा दण्ड तो अब भगवान भी नहीं दे सकेंगे.

जब आदमी अपने हाथ से आंसू मोल लेता है अपने आप दर्द का सौदा करता है तब दर्द और आंसू तकलीफदेह नहीं लगते.और जब कोई ऐसा हो जो आपके दर्द के आधार पर आपको देवता बनाने के लिए तैयार हो और आपके एक-एक आंसू पर अपने सौ-सौ आंसू बिखेर दे, तब तो कभी -कभी तकलीफ भी भली मालूम देने लगती है.

जब तक सुधा सामने रही कभी उसे यह नहीं मालूम हुआ कि सुधा का क्या महत्व  है उसकी ज़िन्दगी में . आज सुधा दूर थी तो उसने देखा कि उसकी साँसों से भी जयादा आवश्यक थी ज़िन्दगी के लिए...

आदमी हँसता है, दुःख दर्द सभी में हँसता है. जैसे -जैसे आदमी की प्रसन्नता थक जाती है वैसे ही कभी-कभी रोते-रोते आदमी की उदासी थक जाती है और आदमी करवट बदलता है ताकि हंसी की छांह में कुछ विश्राम कर फिर वह आंसुओं की कड़ी धूप में चल सके.

अविश्वास आदमी की प्रवृत्तियों को जितना बिगाड़ता है विश्वास आदमी को उतना ही बनाता है ऐसे अवसरों पर जब मनुष्य को गंभीरतम उत्तरदायित्व सौंपा जाता है तब स्वभावतः आदमी के चरित्र में एक विचित्र सा निखार आ जाता है.
 
जीवन की समस्याओं  के अंतर्विरोधों में जब आदमी दोनों पक्षों को समझ लेता है तब उसके मन में एक ठहराव आ जाता है. वह भावना से ऊपर उठकर स्वच्छ बौद्धिक धरातल पर ज़िन्दगी को समझने की कोशिश करने लगता है. चंदर अब भावना से हटकर ज़िन्दगी को समझने की कोशिश करने लगा था. वह अब भावना से डरता था. भावना के तूफ़ान में इतनी ठोकरें खाकर अब उसने बुद्धि की शरण ली थी और एक पलायन वादी की तरह भावना से जागकर बुद्धि की एकांगिता में छिप गया था. कभी भावुकता से नफरत करता था, अब वह भावना से ही नफरत करने लगा था.

मेरी आत्मा सिर्फ तुम्हारे लिए बनी थी, उसके रेशे में वह तत्व है जो तुम्हारी ही पूजा के लिए थे. तुमने मुझे दूर फेंक दिया, लेकिन इस दूरी के अँधेरे में भी जन्म-जन्मान्तर तक भटकती हुयी सिर्फ तुम्हीं को ढूंढूंगी.

मनुष्य का एक स्वभाव होता है. जब वह दुसरे पर दया करता है तो वह चाहता है कि याचक पूरी तरह विनम्र होकर उसे स्वीकार करे. अगर याचक दान लेने में कहीं भी स्वाभिमान दिखलाता है तो आदमी अपनी दानवृत्तिऔर दयाभाव भूलकर नृशंस्ता से उसके स्वाभिमान को कुचलने में व्यस्त हो जाता है.

नफ़रत से नफरत बढती है, प्यार से प्यार जागता है. बिनती के मन का सारा स्नेह सूख सा गया था. वह चिडचिडी , स्वाभिमानी , गंभीर और रूखी हो गयी थी. लेकिन औरत बहुत कमजोर होती है. ईश्वर न करे कोई उसके ह्रदय की ममता को छू ले. वह सब कुछ बर्दाश्त कर लेती है लेकिन अगर कोई , किसी तरह उसके मन के रस को जगा दे, तो वह फिर अपना सब अभिमान भूल जाती है.

तुम बहुत गहराई से सोचते हो . लेकिन मैं तो एक मोटी सी बात जानती हूँ कि जिसके जीवन में वह प्यास लग जाती है वह फिर किसी भी सीमा तक गिर सकता है. लेकिन जिसने त्याग किया, जिसकी कल्पना जागी, वह किसी भी सीमा तक उठ सकता है. मैंने तुम्हें उठते हुए देखा है.

एक क्षण आता है कि आदमी प्यार से विद्रोह कर चुका है अपने जीवन की प्रेरणा मूर्ती की गोद में बहुत दिन तक निर्वासित रह चूका है. उसका मन पागल हो उठता है. फिर से प्यार करने को, अपने मन का दुलार फूलों की तरह बिखरा देने को.

तुम्हें खोकर, तुम्हारे प्यार को खोकर मैं देख चुका हूँ कि मैं आदमी नहीं रह पाता, जानवर बन जाता है. सुधा, अगर तुम आज से कुछ महीनों पहले मिल जाती तो जो ज़हर मेरे मन में घुट रहा है वह तुम्हारे सामने व्यक्त करके मैं बिलकुल निश्चिन्त हो जाता.....

मेरे भगवान, मेरे प्यार ने मुझे अब उस दुनिया में पहुंचा दिया है जो नैतिक-अनैतिक  से ऊपर है.
*** शरीर कि प्यास भी उतनी ही पवित्र और स्वाभाविक है जितनी आत्मा की पूजा आत्मा की पूजा और शरीर की प्यास दोनों अभिन्न हैं. आत्मा की अभिव्यक्ति शरीर से है. शरीर कसंस्कर, शरीर का संतुलन, आत्मा से है. जो आत्मा को शरीर से अलग कर देता है वह मन  भयंकर तूफानों में उलझकर चूर-चूर हो जाता है. चंदर, मैं तुम्हारी आत्मा थी. तुम मेरे शरीर थे. पता नहीं कैसे हम लोग अलग हो गए.

ज़िन्दगी का यंत्रणा चक्र एक वृत्त पूरा कर चुका था. सितारे एक क्षितिज से उठकर, आसमान पार कर दुसरे क्षितिज तक पहुँच चुके थे. साल डेढ़ साल पहले सहसा ज़िन्दगी की लहरों में उथल-पुथल मच गयी थी. और विक्षुब्ध महासागर की तरह भूखी लहरों कि बाहें पसार कर वह किसी को दबोच लेने में हुंकार उठी थी. अपनी भयानक लहरों के शिकंजे में सभी को झकझोर कर सभी विश्वासों और भावनाओं को चकनाचूर कर अंत में सबसे प्यारे सबसे मासूम सबसे सुकुमार व्यक्तित्व को निगल कर अब धरातल शांत हो गया था. तूफ़ान थम गया था. बादल खुल गए थे और सितारे फिर आसमान के घोंसले से भयभीत विह्गे शावकों की तरह झाँक रहे थे.

' कैफ बरदोश बादलों को न देख
बेखबर, तू न कुचल जाये कहीं'
27.04.99


 


' तरुण के स्वप्न' से.....

भारतीय पति -पत्नी एक दूसरे दो अलग-अलग  परछाइयाँ होते हैं - दो अलग-अलग शख्सियत जो डॉ रेल की पटरियों की तरह सदा जुदा रहते हैं और जिन पर ज़िन्दगी की गाड़ी दौड़ती है.

इस संसार में हर वस्तु नाश को प्राप्त होती है. और होगी- किन्तु विचार, आदर्श तथा स्वप्न नष्ट नहीं होते. किसी एक व्यक्ति को भले ही एक विचार के लिए मरना पड़े - किन्तु उसकी मृत्यु के उपरांत वह विचार हजारों व्यक्तियों के रूप में अवतरित होगा. इसी प्रकार विकास का चक्र घूमता रहता है और एक पीढ़ी अपने विचारों और स्वप्नों को दूसरी पीढ़ी को विरासत के रूप में देती रहती है. 

'स्मृति : एक प्रेम की' से .......

कभी-कभी किसी की चुप्पी तोड़ने में बड़ा संकोच होता है. ऐसा लगता है जैसे किसी पवित्र स्थान पर अपवित्र कार्य करने जा रहे हो.

जो जिसका है वह उसमें मुक्ति नहीं पा सकता. हम किसी भी चीज को भोग कर उसका त्याग नहीं कर सकते हैं.

अडयार के समुद्र तट की कई यादें मेरे पास हैं. पर मैंने उन यादों का कोई एल्बम बनाकर नहीं रखा है. जो सिलसिलेवार किसी को दिखा सकूँ. मेरी यादों के कई एल्बमों में ये चित्र बिखरे पड़े हैं. कभी कोई अल्बम खोलने से कोई चित्र दिखाई दे जाता है.

दुनिया में डॉ इन्सान सदा एक दूसरे के लिए अजनबी ही बने रहे हैं, वे सदा ही एक दूसरे के लिए अजनबी ही बने रहेंगे.

तुमने उस रात को आकाश के तारों तले धरती की उस सुनसान राह पर उस औरत को नहीं अपनाया था, जिससे तुम कह रहे हो, तुमने प्रेम किया था.

 

Friday, May 23, 2014

दिव्या से ....

आकाशगामी चंद्रमा तो स्थिर, गंभीर गति से अपनी यात्रा पूर्ण किये जाता है, परन्तु तिथले जल में पड़ता  उसका प्रतिबिम्ब साधारण कारणों से भी क्षुब्ध है .

' अनभ्यास विद्या का शत्रु है'

दिव्या, मैं मृत्यु भय नहीं मानता ... मृत्यु क्या है ? असितत्व का अंत. जिसका असितत्व नहीं, जिसे अनुभूति नहीं. वह भय अनुभव भी नहीं कर सकत.भय है जीवित रहकर पीड़ा और पराभव सहने में, भय है, जीवन भर की पीड़ा और पराभव में. तुम्हें अंक में लेकर समाप्त हो जाने से कौन इच्छा अपूर्ण रह जाएगी ? फिर उसमें भय क्या ? वह सुखद असितत्व का सुखद अंत है.

सुख और दुःख अन्योंयाश्रम हैं उनका असितत्व केवल विचार और अनुभूति के विश्वास में है.  इच्छा ही सर्वावस्था में दुःख का मूल है. एक इच्छा कि पूर्ती दूसरी इच्छा को जन्म देती है . वास्तविक सुख इच्छा की पूर्ती में नहीं इच्छा की निवृत्ति में है.


वेश्या का जीवन मोटी  बत्ती और राल मिले तेल से पूर्ण दीपक की तरह है.अनुकूल वायु में अति प्रज्ज्वलित लौ की भांति या उल्कापात की भांति क्षणिक तीव्र प्रकाश करके शीघ्र समाप्त हो जाता है. कुलवधू का जीवन माध्यम प्रकाश से चिरकाल तक टिमटिमाते दीपक की भांति है. ममता भरी शरण के हाथ प्रतिकूल परिस्थितियों के झंझावत से उसकी रक्षा करते हैं. यह अपने निर्वाण से पूर्व अपने असितत्व से दूसरे दीप जलाकर अपना प्रकाश उसमें देख पाती है. स्वयं उसका निर्वाण  हो जाने पर भी उसका प्रकाश बना रहता है. .... ऐसी परंपरा ही मनुष्य की अमरता है.

 यही है वेश्या के जीवन का विद्रूप. यही है उसकी सफलता, समृद्धि और आत्मनिर्भरता. वेश्या देती है अपना असितत्व और पाती है केवल दृव्य.  परन्तु पराश्रिता कुल- वधु अपने समर्पण के मूल्य में दुसरे पुरुष को पा जाती है और किसी दूसरे पर भी अधिकार पाती है. 

' प्रयत्न और चेष्टा जीवन का स्वभाव और गुण हैं. जब तक जीवन है, प्रयत्न और चेष्टा रहना स्वाभाविक है'. 

सुख और दुःख अन्योंयाश्र्य हैं. सुख की इच्छा से ही दुःख होता है. संसार में जितना सुख है, उससे बहुत अधिक दुःख है, जब संसार ही दुःख पूर्ण है तो वह उससे भागकर कहाँ जायेगा.

...... निरंतर प्रयत्न ही जीवन का लक्षण है. जीवन के एक प्रयत्न या एक अंश की विफलता सम्पूर्ण जीवन की विफलता नहीं है.

जागते हुए चीटीं कि शक्ति सोये हुए हाथी से अधिक होती है. 

अनेक परस्पर विरोधी तत्वों का समुच्चय ही जीवन है. एक ही प्रयोजन से मनुष्य परस्पर विरोधी व्यव्हार करता है. नारी के प्रति अनुराग से, उसके आश्रय की कामना से ही पुरुष उसे अपने अधीन रख कर उसे आत्मनिर्भर नहीं रहने देता. नारी प्रकृति के विधान से नहीं, समाज के विधान से भोग्य है. प्रकृति में और समाज में भी स्त्री परुष अन्योंयाश्र्य है. पुरुष का प्रश्रय पाने से ही नारी परवश है. परन्तु भद्रे, नारी के जीवन की सार्थकता के लिए पुरुष का आश्रय आवश्यक है. और नारी भी पुरुष का आश्रय है. ....

मैं नहीं तू

स्वर्ग और नरक की चिंता को छोड़कर
अपने 'स्वं' और 'अहम्' को भूलकर
केवल 'तुझे' याद कर
धर्म, संप्रदाय की विधाओं को छोड़कर
अशिक्षा, दरिद्रता शोषण को दूर
पीड़ित मानवता की सेवा में
बुद्ध की भांति
जीवंन उत्सर्ग हेतु
परायण है- नव प्रभात को
आदि है यह
अंत है
अंत तक

' एक चमत्कारी गौरवशाली - भावी भारत का उदय होगा. मुझे पूर्ण विश्वास है कि यह होकर रहेगा. पहले से कहीं अधिक महँ भारत का उदय अवश्यम्भावी है'

' नारी सृष्टि का साधन है. सृष्टि की आदि शक्ति का क्षेत्र वह समाज और कुल का केंद्र है. पुरुष उसके चरों ओर घूमता है जैसे कोल्हू का बैल. '

- नमालूम

स्वामी विवेकानंद के कुछ विचार

' जागो, उठो और तब तक चलते रहो जब तक तुम्हें अपने लक्ष्य की प्राप्ति न हो जाये'

हमारे लिए समय रोने के लिए नहीं है. हम आनंद के आंसू भी नहीं बहा सकते. हम बहुत रो चुके हैं. यह समय कोमल बन्ने का नहीं है कोमलता हमारे जीवन में इतने लम्बे समय से चली आरही है कि हम रुई के ढेर सदृश हो गए हैं. ... आज हमरे देश को जिन चीजों की आवश्यकता है वे हैं लोहे की मांसपेशियां, इस्पात की तन्तिकाएं प्रकांड संकल्प जिसका कोई प्रतिरोध न कर सके. जो अपना काम हर प्रकार से पूरा कर ले, चाहे उसके लिए महासागर के तल में जाकर मृत्यु का आमना सामना ही क्यों न करना पड़े. यहाँ है जिसकी हमें आवश्यकता है और इसका हम तभी सृजन कर सकते हैं तभी स्थापना कर सकते हैं और उसे तभी शक्तिशाली बना सकते हैं जबकि हम अद्द्वेत के आदर्श का साक्षात्कार कर लें, सबकी एकता के आदर्श की अनुभूति कर लें. अपने में विश्वास, विश्वास और विश्वास. यदि तुम्हें अपने तेतीस करोड़ देवताओं में तथा उन सब देवताओं में विश्वास है जिन्हें विदेशियों ने तुम्हारे बीच प्रतिष्ठित कर दिया है. किन्तु फिर भी अपने में विश्वास नहीं है तो तुम्हारा उद्धार नहीं हो सकता. अपने में विश्वास रखो और उस विश्वास पर दृढ़ता पूर्वक खड़े रहो. ..

.... क्या कारण है कि हम तेतीस करोड़ लोगों पर पिछले एक हजार वर्षों से मुट्ठी भर विदेशी शाशन करते आये हैं. क्योंकि उन्हें अपने में विश्वास था हमें नहीं है.

'व्यक्तित्व मेरा आदर्श वाक्य है व्यक्तियों को प्रशिक्षित करने के अतिरिक्त मेरी अन्य कोई आकांक्षा नहीं है'

'अकेले एक व्यक्ति में सम्पूर्ण विश्व निहित होता है '

' जब तक मेरे देश का एक कुत्ता भी भूखा रहता है जब तक उसको भोजन देना और उसकी देखभाल करना ही मेरा धर्म है इसके अतिरिक्त और जो कुछ है वह अधर्म है अथवा ऋण धर्म है.'

' भुखमरी से पीड़ित मनुष्य को धर्म का उपदेश देना कोरा उपहास है .....भारत वह देश है जहाँ दसियों लाख  लोग  महुआ का फूल खाकर रहते हैं. और दस या बीस लाख साधू तथा एक करोड़ के लगभग व्राह्मण इन लोगों का रस चूसते हैं.'
 

Wednesday, May 21, 2014

ध्रुवस्वामिनी से ......

कितना अनुभूति पूर्ण था वह एक क्षण का आलिंगन ! कितने संतोष से भरा था. नियति ने अज्ञात भाव से मानो लू से तपी हुई वसुधा को क्षितिज के निर्जन से सांयकालीन  शीतल आकाश से मिला दिया हो. जिस वायु विहीन प्रदेश में उखड़ी हुयी साँसों पर बंधन हो , अर्गला हो, वहां रहते रहते यह जीवन असहाय हो गया था. तो भी मरूंगी नहीं. संसार के कुछ दिन विधाता के विधान में अपने लिए सुरक्षित करा लूंगी. कुमार ! तुमने वही किया, जिसे मैं बचाती रही. तुम्हारे उपकार और स्नेह की वर्षा से मैं भीगी जा रही हूँ .ओह!, इस वक्ष स्थल में डॉ ह्रदय हैं क्या ? जब अन्तरंग 'हाँ' करना चाहता है , तब ऊपरी मन न क्यों कहला देता है ?

कुमार ! यह मृत्यु और निर्वासन का सुख, तुम अकेले ही लोगे, ऐसा नहीं हो सकता. मृत्यु के शहर में प्रवेश के समय मैं भी तुम्हारी ज्योति बनकर बुझ जाने की कामना रखती हूँ.

प्रणय ! प्रेम जब सामने से आते हुए तीव्र आलोक की तरह आँखों में प्रकाश पुंज उड़ेल देता है, तब सामने की  सब चीजें और भी अस्पष्ट हो जाती हैं. अपनी ओर से कोई भी प्रकाश किरण नहीं. तब वही केवल वही ! हो पागलपन , भूल हो, दुःख मिले , प्रेम करने की एक ऋतु होती है. उसमें चूकना, उसमें सोच समझ कर चलना दोनों बराबर हैं. सुना है दोनों ही संसार के चतुरों की दृष्टि में मूर्ख बनते हैं.

प्रश्न स्वाम किसी के सामने  नहीं आते. मैं तो समझती हूँ, मनुष्य उन्हें जीवन के लिए उपयोगी समझता है. मकड़ी कि तरह लटकने के लिए अपने आप ही जाला बुनता है. जीवन का प्राथमिक प्रसन्न उल्लास मनुष्य के भविष्य में मंगल और सौभाग्य को आम्नात्रित करता है उससे उदासीन न होना चाहिए.

तुम्हारी स्नेह सूचनाओं की सहज प्रसन्नता और मधुर आलोपों ने जिस दिन मन के नीरस और नीरव शून्य में संगीत की वसंत की  और मकरंद की सृष्टि कि थी . उसी दिन से मैं अनुभूतिमयी बन गयी हूँ. क्या वह मेरा भ्रम था ? कह दो-कह दो वह तेरी भूल थी.

इस भीषण संसार में एक प्रेम करने वाले ह्रदय को खो देना, सबसे बड़ी हानि है. डॉ प्यार करने वाले हृदयों के बीच में स्वर्गीय ज्योति का निवास है.

अभावमयी लघुता में मनुष्य अपने को महत्वपूर्ण दिखाने का अभियान न करे तो क्या अच्छा नहीं है ?

पाषाणी के भीतर भी कितने मधुर स्रोत बहते रहते हैं. उनमें मदिरा नहीं, शीतल जल की धारा बहती है.
प्यासों की तृप्ति -

प्रेम का नाम न लो. वह एक पीड़ा थी जो छूट गयी. उसकी कसक भी धीरे- धीरे दूर हो जाएगी . राजा, मैं तुम्हें प्यार नहीं करती मैं तो दर्प से दीप्त तुम्हारी महत्व्मयी पुरुष - मूर्ती की पुजारिन थी, जिसमें पृथ्वी पर अपने पैरों से खड़े होने कि दृढ़ता थी. इस स्वार्थ मलिन कलुष से भरी मूर्ती से मेरा परिचक्र नहीं.

अपनी तेज कि अग्नि में जो सब कुछ भस्म कर सकता हो, उस दृढ़ता का, आकाश के नक्षत्र कुछ बना बिगड़ नहीं सकते. तुम आशंका मात्र से दुर्बल-कम्पित और भयभीत हो.

'तुम आज कितनी प्रसन्न हो'
-और तुम क्यों नहीं ?
-'मेरे जीवन निशीथ का ध्रुव नक्षत्र इस घोर अन्धकार में अपनी स्थिर उज्ज्वलता से चमक रहा है. आज महोत्सव है न'.
स्त्री और पुरुष का परस्पर विश्वासपूर्वक अधिकार रक्षा और सहयोग ही तो विवाह कहा जाता है. यदि ऐसा न हो तो धर्म और विवाह खेल है.

' रानी, तुम भी स्त्री हो. क्या स्त्री की व्यथा न समझोगी? आज तुम्हारी विजय का अंधकार तुम्हारे शाश्वत स्त्रीत्व को ढक ले, किन्तु सबके जीवन में एक बार प्रेम कि दीपावली जलती है. जली होगी अवश्य. तुम्हारे भी जीवन में आलोक का वह महोत्सव आया होगा, जिसमें ह्रदय, ह्रदय को पहचानने का प्रयत्न करता है. उदार बनता है. और सर्वस्व दान करने का उत्साह रखता हो'

' स्त्रियों के इस बलिदान का भी कोई मूल्य नहीं. कितनी असहाय दशा है. अपने निर्बल और अवलंब खोजने वाले हाथों से यह पुरुषों के चरणों को पकड़ती है. और वह सदैव ही इनको तिरस्कार \, घृणा और दुर्दशा की भिक्षा से उपकृत करता है. तब भी वह बावली मानती है.'

' रोग- जर्जर शरीर पर अलंकारों की सजावट मलिनता और कलुष की ढेर पर बाहरी कुकम्भ - केसर का लेप गौरव नहीं बढाता'.    


कर्म भूमि से ....

ज़िन्दगी कि वह उम्र जब इन्सान को मुहब्बत की सबसे ज्यादा जरूरत होती है बचपन है. उस वक़्त पौधे को तरी मिल जाये, तो ज़िन्दगी भर के लिए उसकी जड़ें मजबूत हो जाती हैं. उस वक़्त खुराक न पाकर ज़िन्दगी खुश्क हो जाती है. मेरी माँ का उसी ज़माने में देहांत हुआ और तब से मेरी रूह को खुराक नहीं मिली. वही भूख मेरी ज़िन्दगी है.

जिन वृक्षों कि जड़ें गहरी होती हैं. उन्हें बार-बार सींचने कि जरूरत नहीं होती. वह जमीन से ही आद्रता लेकर फलते फूलते हैं. सकीना और अमर का प्रेम वही वृक्ष  है. उसे सजग रखने के लिए बार-बार मिलने की जरूरत नहीं.  

मैं प्रेम को संदेह से ऊपर समझती हूँ

 मैं प्रेम को संदेह से ऊपर समझती हूँ वह देह की वस्तु नहीं  आत्मा की वास्तु है. संदेह का वहां जरा भी स्थान नहीं है . और हिंसा तो संदेह का ही परिणाम है. वह सम्पूर्ण आत्मसमर्पण है. उसके मंदिर में तुम परीक्षक बन कर नहीं उपासक बनकर ही वरदान पा सकते हो.

जिसे सच्चा प्रेम कहते हैं, केवल बंधन में बंध जाने के बाद ही पैदा होता है. इसके पहले जो प्रेम होता है वह तो रूप का आसक्ति मात्र है, जिसका कोई टिकाव नहीं, मगर इसके पहले यह निश्चय तो कर लेना ही था कि जो पत्थर साहचर्य के खराद पर चढ़ेगा, उसमें खराडे जाने कि क्षमता है कि नहीं सभी पत्थर तो खराद पर चढ़ कर सुन्दर मूर्तियाँ नहीं बना पाते.

शरीर मात्र से प्रेम करना अपने कोमल और मासूम ह्रदय को बहलाना है. शांत एवं शुभ्र प्रेम- पूर्ण व्यवहार भाग्यशील लोग ही प्राप्त कर पाते हैं.

जो प्रसन्न होकर हँसता है वही दुखी होकर रोता है.

धन ने आजतक किसी नारी के ह्रदय पर विजय नहीं पायी. पायी है और न पा सकेगा.  

जो पूजाएँ अधूरी रहीं

जो पूजाएँ अधूरी रहीं
वे व्यर्थ न गयीं
जो फूल खिलने से पहले मुरझा गए
और नदियाँ रेगिस्तानों में खो गयीं
वे भी नष्ट न हुयीं
जो कुछ रह गया पीछे जीवन में
जानता हूँ
निष्फल न होगा
जो मैं गा न सका
हे प्रकृति !
वह तुम्हरे साज पर बजता रहेगा

- विश्व कवि रवींद्र नाथ ठाकुर
26.04.99

तेरी दुनिया से

तेरी दुनिया से होक मजबूर, बहुत दूर चला
मैं बहुत दूर, बहुत दूर , बहुत दूर  चला

इस कदर दूर कि फिर लौट के भी आ न सकूँ
ऐसी मंजिल पे जहाँ खुद को भी पा न सकूँ

आँख भर आई अगर अश्कों को मैं पी लूँगा
आह निकली भी अगर होठों को मैं सी लूँगा

खुश रहे तू है जहाँ ले जा दुआएं मेरी
तेरी राहों से जुदा हो गयीं राहें मेरी
कुछ नहीं साथ मेरे बस हैं खताएं मेरी

- नमालूम

नैना मेरे रंग भरे

नैना मेरे रंग भरे सपने तो सजाने लगे
क्या पता प्यार किस शमां जले न जले

आयेंगे वो आयेंगे मैं सोच-सोच शरमाऊं
क्या होगा क्या न होगा मैं मन ही मन घबराऊं
आज मिलन हो जाये तो समझूँ
दिन बदले मेरे

 जानू न जानू न रूठे-रूठे पिया को मनना
बिंदिया ओ बिंदिया मेरी
मुझे प्रीत की रीत सिखाना
मैं तो सजन कि हो ही चुकी
क्यों न हुए वो मेरे

कजरा ये कजरा मेरी अंखियों का बन गया पानी
टूटा दिल टूटा मेरी तड़प किसी ने न जानी
प्यार का एक पल हाथ लगे न मेरे

- नमालूम
 25.04.99

मेरा जीवन

मेरा जीवन कोरा कागज़ कोरा ही रह गया
जो लिखा था आसुंओं के संग बह गया

इक हवा का झोंका आया टूटा डाली से फूल
न पवन की न चमन की किसकी है ये भूल
खो गयी खुशबू हवा में कुछ न रह गया

उड़ते पंछी का ठिकाना, मेरा न कोई जहाँ
न डगर है न खबर है जाना है मुझको कहाँ
बन के सपना, हम सफ़र का साथ रह गया

एम. जी. हसमत

हमने देखी है

हमने देखी है उन आँखों कि महकती खुशबू
हाथ से छू के इसे रिश्तों का इल्जाम न दो

सिर्फ अहसास है ये रूह से महसूस करो
प्यार को प्यारा ही रहने डॉ कोई नाम न दो

प्यार कोई बोल नहीं, प्यार आवाज़ नहीं
इक ख़ामोशी है सुनती है कहा करती है
न ये बुझती है, न ये रूकती है , न ठहरी है कहीं
नूर कि बूँद है सदियों से बहा करती है

मुस्कराहट सी खिली रहती रहती है आँखों में कहीं
और पलकों पे उजाले से झुके रहते हैं
होंठ कुछ कहते नहीं आँखों से होठों पे मगर
इतने खामोश से अफसाने रुके रहते हैं

- गुलज़ार

ज़िन्दगी का सफ़र है

ज़िन्दगी का सफ़र है ये कैसा सफ़र
कोई समझा नहीं कोई जाना नहीं

है ये कैसी डगर चलते हैं सब मगर
कोई समझा नहीं कोई जाना नहीं
ज़िन्दगी को बहुत प्यार हमने दिया

मौत से भी मुहब्बत निभाएंगे हम
रोते-रोते ज़माने में आये मगर
हँसते-हँसते ज़माने से जायेंगे हम
जायेंगे पर किधर है किसे ये खबर
कोई समझा नहीं कोई जाना नहीं

ऐसे जीवन में है जो जिए ही नहीं
ऐसे जीने से पहले मौत आ गयी
फूल ऐसे भी हैं जो खिले ही नहीं
जिनके खिलने से पहले खिजां आ गयी
है परेशां ये मन थक गए पाँव मगर
कोई समझा नहीं कोई जाना नहीं

- इन्दीवर

Tuesday, May 20, 2014

जीवन से भरी

जीवन से भरी तेरी आँखें मजबूर करें जीने के लिए
सागर भी तरसते रहते हैं तेरे रूप का रस पीने के लिए

तस्वीर बनाये क्या कोई, क्या कोई लिखे तुझ पे कविता
रंगों छंदों में समाएगी , किस तरह से इतनी सुन्दरता, सुन्दरता

इक धड़कन है  तू दिल के लिए
इक जाम है तू जीने के लिए

मधुवन की सुगंध है साँसों में
बाहों में कमल की कोमलता
किरणों का तेज है चेहरे पे
हिरणों कि है तुझमें चंचलता , चंचलता

आँचल का तेरे है तार बहुत
कोई चाक जिगर सीने के लिए

जीवन से भरी तेरी आँखें ........

- इन्दीवर

पल पल

पल -पल दिल के पास तुम रहती हो
जीवन मीठी प्यास ये कहती हो

हर शाम आँखों पर तेरा आँचल लहराए
हर रात यादों कि बारात ले आए
मैं सांस लेता हूँ, तेरी खुशबू  आती है
इक महका-महका सा पैगाम लाती है
मेरे दिल की धड़कन भी तेरे गीत गाती है

कल तुझको देखा था मैंने अपने आँगन में
जैसे कह रही थी तुम मुझे बाँध लो बंधन में
ये कैसा रिश्ता है, ये कैसे सपने हैं
बेगाने होकर भी क्यों लगते अपने हैं
मैं सोच में रहता हूँ, डर-डर कर कहता हूँ

तुम समझोगी क्यूँ इतना मैं तुम्हें प्यार करूँ
तुम समझोगी दीवाना मैं भी इकरार करूँ
दीवानों कि ये बातें दीवाने जानते हैं
तुम यूँ ही जलाती रहना आ -आ कर ख्वाबों में

- राजेन्द्र कृष्ण

कभ-कभी

कभी-कभी मेरे दिल में ख्याल आता है
कि तुमको बनाया गया है मेरे लिए
तू अब से पहले  में बस रही थी कहीं
तुझे ज़मीं पे बुलाया गया  है  लिए

ये बदन ये निगाहें मेरी अमानत हैं
ये गेसुओं की घनी छाँव है मेरी खातिर
ये होंठ और ये बाँहें मेरी अमानत हैं

कि जैसे बजती हैं शहनाईयां सी राहों में
सुहागरात है घूंघट उठा रहा हूँ मैं
सिमट रही है तू शर्मां के अपनी बाहों में

कि जैसे तू मुझे चाहगी उम्र भर यूँ ही
उठेगी मेरी तरफ प्यारकी नज़र यूँ ही
मैं जानता हूँ, तू गैर है, मगर यूँ ही

मैं और मेरी तन्हाई
अक्सर ये बातें करते हैं
तुम होतीं तो कैसा होता
तुम ये कहतीं
तुम वो कहतीं
तुम इस बात पे हैरां होतीं
तुम उस बात पे कितनी हंसतीं
तुम होतीं तो ऐसा होता
तुम होतीं तो वैसा होता
मैं और मेरी तन्हाई

अक्सर ये बातें करते हैं

ये कहाँ आ गए हम, यूँ ही साथ-साथ चलते
तेरी बांहों में है जानम मेरी जिस्म जां पिघलते

ये रात है या तुम्हारी जुल्फें खुली हुई हैं
है चांदनी या तुम्हारी नज़रों से
मेरी रातें धुली  हुयी हैं
ये चाँद है या तुम्हारा कंगन
सितारे हैं या तुम्हारा आँचल
हवा का झोंका है या तुम्हारे बदन की खुशबू
ये पत्तियों की है सरसराहट कि
तुमने चुपके से कुछ कहा है
ये सोचता हूँ मैं कबसे गुमसुम की
जबकि मुझको ये खबर है कि
तुम नहीं हो, कहीं नहीं हो
मगर ये दिल है  कि , कह रहा है कि
तुम यहीं हो, यहीं कहीं हो-

तू बदन है मैं हूँ छाया , तू नहीं तो मकैन कहाँ हूँ
मुझे प्यार करने वाले तू जहाँ है मैं वहां हूँ
हमें मिटना ही था हमदम किसी राह भी निकलते

मजबूर ये हालात इधर भी  हैं, उधर भी
तन्हाई की इक रात इधर भी है उधर भी
कहने को तो बहुत कुछ है
मगर किससे  कहें हम
कब तक यूँ खामोश रहें और सहें  हम

दिल कहता है-
दुनिया की हर इक रस्म उठा दें
दीवार जो हम दोनों में है

आज गिरा दें
क्यों दिल में सुलगते रहें
लोगों को बता दें
हाँ, हमको मुहब्बत है
मुहब्बत है , मुहब्बत है
अब दिल में यही बात
इधर भी है और
उधर भी .........

जावेद अख्तर

प्रतीक्षा

क्या तुमने उस बेला मुझे बुलाया था कनु ?
लो मैं सब छोड़ छाड़ कर आ गयी !

इसलिए तब
मैं तुममें बूँद की तरह विलीन नहीं हुई थी
इसीलिए मैंने अस्वीकार कर दिया
तुम्हारे गोलोक को
कालावाधिहीन रस
क्योंकि मुझे फिर आना था !

तुमने मुझे पुकारा था न
मैं आ गयी हूँ कनु  !

और जन्मान्तरों की पगडण्डी के
कठिनतम मोड़ पर खड़ी होकर
तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही हूँ
कि, इस बार इतिहास बनाते समय
तुम अकेले न छूट जाओ !

सुनो मेरे प्यार !!

प्रगाढ़ के विलाक्षणों में अपनी अन्तरंग
सखी को तुमने बांहों में गूंथा
पर उसे इतिहास में गूंथने से हिचक क्यों गए प्रभु ?

बिना मेरे कोई भी अर्थ कैसे निकल पाता
तुम्हारे इतिहास को
शब्द, शब्द, शब्द......
राधा के बिना
सब
रक्त के प्यासे
अर्थहीन शब्द !

सुनो मेरे प्यार !
तुम्हें मेरी जरूरत थी न
लो मैं सब छोड़कर आ गयी हूँ
ताकि कोई यह न कहे
कि तुम्हारे अन्तरंग के लिए सखी
केवल तुम्हारे सांवरे तन के नशीले संगीत कि
ले बनकर रह गयी.....
मैं आ गयी प्रिय !!
मेरी वेणी में अग्नि पुष्प गूंथने वाली
 तुम्हारी उँगलियाँ
अब इतिहास में अर्थ क्यों  नहीं गूंथती?
तुमने पुकारा था न !

मैं पगडण्डी के कठिनतम मोड़ पर
तुम्हारी प्रतीक्षा में
अडिग खड़ी हूँ कनु मेरे !!

( धर्मवीर भारती कृत 'कनुप्रिया' से )

25.04.99

Monday, May 19, 2014

एक प्रश्न

अच्छा मेरे महान कनु
मान लो कि क्षण भर को
मैं यह स्वीकार लूँ
कि मेरे ये सारे तन्मयता के गहरे क्षण
सिर्फ भावावेश थे
सुकोमल कल्पनाएँ थीं
रंगे हुए, अर्थहीन आकर्षक शब्द थे

मान लो कि
क्षण भर को
मैं यह स्वीकार लूँ
कि
पाप, पुन्य, धर्म अधर्म न्याय दंड
क्षमाशील वाला यह तुम्हार युद्ध सत्य है-

तो भी मैं क्या करूँ कनु
मैं तो वही हूँ
तुम्हारी बावरी मित्र
जिसे सदा उतना ही ज्ञान मिला
जितना तुमने उसे दिया

जितना तुमने मुझे दिया अभी तक
उसे पूरा समेटकर भी
आसपास जाने कितना है तुम्हारे इतिहास का
जिसका कुछ अर्थ मुझे समझ में नहीं आता है .

अपनी जमुना में
जहाँ घंटों अपने को निहारा करती थी मैं
वहां अब शस्त्रों से लदी  हुयी
अगणित नौकाओं की पंक्ति रोज-रोज कहाँ जाती है?
धारा में बह-बह कर आते हुए टूटे रथ
जर्जर पताकाएं किसकी हैं ?

हारी हुयी सेनाएं, जीती हुयी सेनाएं
नभ को कांपते हुए,युद्ध घोष क्रंदन स्वर
भागे हुए सैनिकों से सुनी हुयी
अकल्पनीय अमानुषिक घटनाएं युद्ध की
क्या ये सब सार्थक हैं ?
चरों दिशाओं से
उत्तर को उड़ -उड़ कर जाते हुए
गिद्धों को क्या तुम बुलाते हो
( जैसेबुलाते हो भटकी गायों को )

जितनी समझ तुमसे पाई है अब तक कनु
उतनी बटोरकर भी
कितना कुछ है जिसका
कोई भी अर्थ मुझे समझ नहीं आता है

अर्जुन की तरह कभी
मुझे भी समझा दो
सार्थकता है क्या बंधु ?
मान लो तन्मयता के गहरे क्षण
रंगे हुए अर्थहीन , आकर्षक शब्द थे
तो सार्थक फिर क्या है कनु ?
पर इस सार्थकता को तुम मुझे
कैसे समझोगे कनु ?

शब्द, शब्द, शब्द......
मेरे लिए सब अर्थहीन हैं
यदि वे मेरे पास बैठकर
मेरे रूखे कुन्तलों  में उँगलियाँ उलझाये हुए
तुम्हारे कांपते अधरों से नहीं निकलते

शब्द, शब्द, शब्द ...
कर्म, स्वधर्म, निर्णय, दायित्व ....
मैंने भी गली- गली सुने हैं ये शब्द
अर्जुन ने इनमें चाहे कुछ भी पाया हो
मैं इन्हें सुनकर कुछ नहीं पाती प्रिय
सिर्फ   राह में ठिठककर
तुम्हारे उन अधरों कि कल्पना करती हूँ
जिनसे तुमने ये शब्द पहली बार कहे होंगे

तुम्हारा सांवला लहराता हुआ जिस्म
तुम्हारी किंचित मुड़ी हुई शंखग्रीवा
तुम्हारी उठी हुई चन्दन बाहें
तुम्हरी अपने में डूबी हुई
अधर्खुली दृष्टि
धीरे -धीरे हिलते हुए
तुम्हारे जादू भरे होंठ  !

मैं कल्पना करती हूँ कि
अर्जुन की तरह मैं हूँ
और मेरे मन में मोह उत्पन्न हो गया है
और मैं नहीं जानती कि युद्ध मौन सा है
और मैं किसके पक्ष में हूँ
और समस्या क्या है
और लड़ाई किस बात की है
लेकिन मेरे मन में मोह उत्पन्न हो गया  है
क्योंकि तुम्हारे द्वारा समझाया जाना
मुझे बहुत अच्छा लगता है
और सेनायें  स्तब्ध खड़ी हैं
और इतिहास स्थगित हो गया है
और तुम मुझे समझा रहे हो ..............

कर्म, स्वधर्म, निर्णय, दायित्व
शब्द,शब्द, शब्द.......
मेरे लिए नितांत अर्थहीन हैं
मैं इन सबके परे अपलक तुम्हें देख रही हूँ
हर शब्द को अंजुरी बनाकर
बून-बूँद तुम्हें पी रही हूँ
और तुम्हारा तेज
मेरे जिस्म के एक-एक मूर्छित संवेदन को
धधका रहा है

और तुम्हारे जादू  भरे होठों से
रजनी गंध के फूलों कि तरह ताप-ताप शब्द झर रहे हैं
एक के बाद एक के बाद एक

कर्म, स्वधर्म , निर्णय, दायित्व
मुझ तक आते-आते सब बदल गए हैं
मुझे सुना पड़ता है केवल
राधन, राधन, राधन

शब्द,शब्द, शब्द.......
तुम्हारे शब्द अगणित हैं कनु- संख्यातीत
पर उनका अर्थ मात्र एक है
मैं
मैं
केवल मैं !
फिर उन शब्दों से
मुझी को
इतिहास कैसे समझोगे कनु ?

- नमालूम




 

मेरे स्वर्णिम संगीत

यह जो अकस्मात
आज मेरे जिस्म के सितार के
एक-एक तार में झंकार उठे हो
सच बतलाना मेरे स्वर्णिम संगीत
तुम कब से मुझमें छिपे सो रहे थे
सुनो, मैं अक्सर अपने शारीर को
पोर-पोर को अवगुंठन में ढककर तुम्हारे सामने गयी
मुझे तुमसे कितनी लाज आती थी
मैंने अक्सर अपनी हथेलियों में
अपना लाज से आरक्त मुंह छिपा लिया है
मुझे तुमसे कितनी लाज आती थी
मैं अक्सर तुमसे केवल तम के प्रगाढ़ परदे में मिली
जहाँ हाथ को हाथ नहीं सूझता था
मुझे तुमसे कितनी लाज आती थी

पर हाय मुझे क्या मालूम था
कि इस बेला जब अपने को
अपने से छिपाने के लिए मेरे पास
कोई आवरण नहीं रहा
तुम मेरे जिस्म के एक से झंकार उठोगे

सुनो! सच बतलाना मेरे स्वर्णिम संगीत

इस क्षण की प्रतीक्षा में तुम
कब से मुझमें छिपे सो रहे थे
यह जो दोपहर के सन्नाटे में
यमुना के निर्जन घाट परअपने सारे वस्त्र
किनारे रख
 मैं घंटों जल में निहारती हूँ
क्या तुम समझते कि मैं
इस भांति अपने को देखती हूँ
नहीं मेरे सांवरे !

यमुना के नीले जल में
मेरा यह बेबस लता सा कांपता तन बिम्ब
और उसके चरों ओर सांवली गहराई का अथाह प्रसार
जानते हो कैसा लगता है ?

मानो यह यमुना की सांवली गहरी नहीं है
यह तुम हो जो सरे आवरण दूर कर
मुझे चारों ओर से कण-कण रोम-रोम
अपने श्यामल प्रगाढ़
अथाह आलिंगन में पोर-पोर कसे हुए हो !

यह क्या तुम समझते हो
घंटों जल में - मैं अपने को निहारती हूँ
नहीं मेरे सांवरे !!

- नमालूम

आसपास

मन के आँगन में एक खटका
चुपके से किसी की दस्तक
ठहरा सा दिन
नि: स्तब्ध रात
आशा के कुछ दीप
विश्वास कि बरसात
कौन!
कौन यहाँ ?
ढूंढता हर पल आसपास
शायद तुम ही
तुम ही तो हो
मेरे मन के आसपास

- नमालूम

मंजरी परिणय

यह जो मैं  कभी- कभी चरम के साक्षात्कार के क्षणों में बिलकुल जड़ और निस्पंद हो जाती हूँ
इसका मर्म तुम समझते क्यूँ नहीं सांवरे !

तुम्हारी जन्म-जन्मान्तर की रहस्मयी लीला की एकान्त संगिनी मैं
इन क्षणों में अक्स्मात
तुमसे पृथक नहीं हो जाती मेरे प्राण
तुम यह क्यों नहीं समझ पाते कि लाज
सिर्फ जिस्म की नहीं होती
मन की भी होती है
एक मधुर भय
एक अंनजाना  संशय
एक आग्रह भरा गोपन
एक नि:स्वार्थ वेदना , उदासी
जो मुझे बार-बार चरम सुख के क्षणों में भी अभिभूत कर लेती है
भय, संशय,गोपन, उदासी
ये सभी ढीठ चंचल सर चढ़ी सहेलियों  की तरह
मुझे घेर लेती हैं

और मैं चाहकर भी तुम्हारे पासठीक उसी समय
नहीं पहुँच पाती  जब आम्र मंजरियों के नीचे
अपनी बांसुरी में मेरा नाम भरकर तुम बुलाते हो !

उस दिन तुम उस बौर  लादे आम की
झुकी डालियों से टिके कितनी देर मुझे वंशीसे टेरते रहे
ढलते सूरज कि उदास कांपती किरणें
तुम्हारे माथे के मोर पंखों
से बेबस विदा मांगने लगी
मैं नहीं आई

गायें कुछ क्षण तुम्हें अपनी भोली आँखों से
मुंह उठाये देखती रहीं और फिर
धीरे -धीरे नंदगाँव की पगडण्डी पर
बिना तुम्हारे अपने आप मुड़ गयीं
मैं नहीं आई

यमुना के घाट पर
मछुओं ने अपनी नावें बाँध दिन
और कन्धों पर पतवारें रख चले गए
मैं नहीं आई

तुमने बंशी होठों से हटा ली थी
और उदास , मौन, तुम आम्र वृक्ष की जड़ों से टिककर बैठ गए थे
और बैठे रहे, बैठे रहे, बैठे रहे
मैं नहीं आई , नहीं आई, नहीं आई

तुम अंत में उठे
एक झुकी डाल पर खिला एक बौर तुमने तोड़ा
और धीरे- धीरे चल दिए
अनमने तुम्हारे पाँव पगडण्डी पर चल रहे थे
पर जानते हो तुम्हारे अनजाने में ही तुम्हारी अंगुलियाँ क्या कर रहीं थीं ?

वे आम्र मंजरी को चूर- चूर कर
श्यामल वन घासों में बिछी उस मांग सी उजली
पगडण्डी पर बिखेर रही थी...
यह तुमने क्या किये प्रिये !
क्या अपने अनजाने में ही
उस आम के बौर से मेरी क्वांरी उजली पवित्र मांग
भर रहे थे सांवरे ?

पर मुझे देखो कि मैं उस समय भी तो माथा नीचा कर
इस अलौकिक सुहाग से प्रदीप्त होकर
माथे पर पल्ला डालकर
झुककर तुम्हारी चरण धूलि लेकर
तुम्हें प्रणाम करने -
नहीं आई,नहीं आई,नहीं आई !

** पर मेरे प्राण
यह क्यों भूल जाते हो कि मैं वही
बावली लड़की हूँ न जो, कदम्ब के नीचे बैठकर
जब तुम पोई की जंगली लतरों के पके फलों को
तोड़कर, मसलकर, उनकी लाली से मेरे पाँव को
महावर रचने के लिए अपनी गोद में रखते हैं
तो मैं लाज से धनुष कि तरह दोहरी हो जाती हूँ
और अपने पाँव पूरे बल से समेट कर खींच लेती हूँ
अपनी दोनों बाँहों में अपने घुटने कस
मुंह फेरकर निश्छल बैठ जाती हूँ
पर जब शाम को घर आती हूँ तो
निम्रित एकांत में दीपक के मंद आलोक में
अपने उन्हीं चरणों को
अपलक निहारती हूँ
बावली सी उन्हें बार-बार प्यार करती हूँ
जल्दी-जल्दी में अधबनी उन महावर कि रेखाओं को
चरों ओर देखकर धीमे से
चूम लेती हूँ

**
रात गहरा आई है
और तुम चले गए हो
और मैं कितनी देर तक बांह से
उसी आम्र डाली को घेरे चुपचाप रोती रही हूँ
जिस पर टिककर तुम प्रतीक्षा करते रहे

और मैं लौट रही हूँ
हताश, और निष्फल
और ये आम के टूटे बौर के कण-कण
मेरे पाँव में बुरी तरह साल रहे हैं
पर तुम्हें यह कौन बताएगा सांवरे
कि देर ही में सही
मैं तुम्हारे पुकारने पर आ तो गयी
और मांग सी उजली पगडण्डी पर बिखरे
ये मंजरी कण भी अगर मेरे चरणों में गड़ते हैं तो
इसीलिए न कि कितना लम्बा रास्ता
कितनी जल्दी-जल्दी पार कर मुझे आना पड़ा है
और काँटों औत ककरियों से
मेरे पाँव किस बुरी तरह घायल हो गए हैं

यह कैसे बताऊँ तुम्हें
कि चरण साक्षात्कार के ये अनूठे क्षण भी
जो कभी-कभी मेरे हाथ से छूट जाते हैं
तुम्हारी जो मर्म पुकार जो कभी-कभी मैं नहीं सुन पाती
तुम्हारी भेंट का अर्थ जो नहीं समझ पाती
तो मेरे सांवरे लाज मन की भी होती है

एक अज्ञात भय
अपरिचित संशय
आग्रह भरा गोपन
और सुख के क्षण
में भी घिर आने वाली उदासी
फिर भी उसे चीरकर
तो क्या तुम मुझे अपनी लम्बी
चन्दन बाहों में भरकर बेसुध नहीं कर दोगे ?

** यह जो मैं गृहकाज से अलसाकर अक्सर
इधर चली आती हूँ
और कदम्ब कि छांह में शिथिल अस्त व्यस्त
अनमनी सी पड़ी रहती हूँ .....

यह पछतावा अब मुझे हर क्षण
सालता रहता है कि
मैं उस रास की रात तुम्हारे पास से लौट क्यों आई ?
जो चरण तुम्हारे वेणुवादन की लौ पर
तुम्हारे नील जलज तन की परिक्रमा देकर नाचते रहे
वे फिर घर की ओर उठ कैसे पाए
मैं उस दिन लौटी क्यों
कण-कण अपने को तुम्हें देकर रीत क्यों नहीं गयी ?
तुमने तो उस रास की रात
जिसे अंशतः भी आत्मसात किया
उसे सम्पूर्ण बनाकर
वापस अपने अपने घर भेज दिया
पर हाय वह सम्पूर्णता तो
इस जिस्म के एक एक कण में
बराबर टीसती रहती है
तुम्हारे लिए !
कैसे हो जी तुम

जब मैं जाना ही नहीं चाहती
तो बांसुरी के एक गहरे अलाप से
मदोन्मत्त मुझे खींच बुलाते हो
और जब वापस  नहीं आना चाहती
तब मुझे अंशतः ग्रहण कर
सम्पूर्ण बनाकर लौटा देते हो !!

- नमालूम





25.04.99

Sunday, May 18, 2014

तुम्हारा स्पर्श

मैं अधूरी सी थी
तुमसे मिलने से पहले
अपने आप में सिमटी हुयी
किन्तु पाकर तुम्हारा स्पर्श
खिल उठा मेरा रोम-रोम
कली  की मानिंद
झुक सी गयी मेरी नज़र
डूबती गयी मैं हया के समंदर में

मेरे अहसास
हो गए तब्दील
प्यार के रंग में
कंचन सी हो गयी मेरी काया
सोने सा दमक उठा
मेरा शरीर
मन हो गया बेकाबू
तुम्हारे जरा से स्पर्श से

- नमालूम

नाता

मैं एक मूढ़ परीक्षार्थी
तुम उलझी सी प्रश्नावली
मैं टूटा दर्प अभिलाषी का
तुम आस हर प्रत्याशी की

मैं नेता का अनर्गल प्रलाप
तुम प्रभाती का मधुर अलाप
मैं स्याह रातों का कलंक
तुम पूनम का अकलुष मयंक

फिर भी हमारा कुछ नाता है-
बिना मेरे क्या मूल्य तुम्हें मिल पता है

- नमालूम

यातनाएं

मेरे मन में खड़े
तुम्हरी स्मृतियों के
बर्फीले  पहाड़
जब बहते हैं गलकर
नयनों के कोरोंसे, तो
गीली हो जाती हैं
शुष्क पड़ी भावनाएं

जागृत हो उठता है
तेरे स्पर्श का अहसास
दौड़ने लगता है लहू में
तेरे स्वर का स्पंदन
रोम-रोम थिरकने लगता है
धडकनों की तान पर
जेठ भी लगता है मधुमास

फिर अचानक उठता है तूफ़ान
चीखने लगती हैं वासनाएं
छा जाते हैं यौवन के बादल
कौंधने लगती हैं कामनाएं
बरबस मन पहुँच जाता है तेरे पास
पर तू खोयी-खोयी सी बैठी है
एकदम गुमसुम - चुपचाप
घुटनों में अपना सिर छुपाये

चाहा लगा लूँ तुझको सीने से
चूम लूँ तेरे मासूम चेहरे को
किन्तु दूर- दूर तक फैली ख़ामोशी में
मुझे घेर लेते हैं रिश्ते के साए

तार-तार हो जाती हैं श्रंखलायें
यकायक पथरा जाती हैं भावनाएं
शांत हो जाती हैं वासनाएं
दम तोड़ देती है हैं कामनाएं
शून्य में पाता हूँ अपने आपको
और रह जाती हैं शेष
बस यातनाएं

- नमालूम

ग़ज़ल

कितनी उम्मीदें ले के खड़ी है
देख ये दुनिया बहुत बड़ी है

आसमान है खफा -खफा सा
धरती भी उखड़ी - उखड़ी है

यूँ  तो बहुत कुछ हो सकता था
यूँ तोअभी एक उम्र पड़ी है

दुःख की घटा भी छट जाएगी
सोच के चल बारिश कि झड़ी है

ध्यान में लेता चल पेड़ों को
राह कठिन और धूप कड़ी है

-नमालूम

ग़ज़ल

मुद्दतो, अब तो खबर भी नहीं आती उसकी
इस तरह क्या कोई अपनों को भुला देता है

किस तरह बात लिखूं दिल की उसे
वो अक्सर दोस्तों को मेरे ख़त पढ़ के सुना देता है

सामने रख के निगाहों के वो तस्वीर मेरी
अपने कमरे के चिरागों को बुझा देता है

जाने किस बात कि वो मुझको सजा देता है
मेरी हंसती आँखों को वो रुला देता है

मैं भी देखूंगी तुझे मांग कर उससे एक दिन
लोग कहते हैं कि मांगों तो खुदा देता है

- नमालूम


स्मृतियों के बादल

जैसे बादल बनाते हैं आकाश पर
तरह-तरह की आकृतियाँ
मेरे मन के आकाश पर वैसे ही
छायीं हैं तुम्हारी स्मृतियाँ
इनकी छुवन से याद आते हैं मुझे
तुम्हारे साथ गुजारे लम्हे
तुम्हार मुस्कुराना, रूठ जान, खिलखिलाना-

बादल जल भरे - स्मृतियाँ आंसू भरी
दोनों बरसते हैं बनकर सावन
भीगा मन
अंजाने भर आये नयन
तुम बिन मेरा जीवन
जेठ कि कोई दोपहर
तुमसे बिछड़ी मेरी आत्मा
सागर से बिछड़ी कोई लहर

तुम बिन मैं-
किसी पक्षी का टूटा पर
जाने किन-किन यातनाओं से गुज़र जाता हूँ मैं
तैरते हैं जब मेरे मन के आकाश पर
तुम्हारी स्मृतियों के बादल !

- नमालूम

Thursday, May 15, 2014

अगर तुम मिल गयी होती !

रात रात भर जगकर
करवटें बदलना
खामोशियों में तुम्हारी
आवाज़ें सुनना
उस वक़्त
अगर तुम मिल गयी होती
तो आज
सन्नाटों से बातें
कौन करता ?

बदन से खून निकालकर
तुम्हें प्रेम पत्र लिखना
लिखकर फाड़ देना
ये सोचकर कि शायद
कुछ कहना बाकी है
उस वक़्त
अगर तुम मिल गयी होती
तो आज
कविताएँ कौन लिखता ?

तुम्हारी मीठी बातें सुनकर
हँसता चेहरा देखकर
सपने में मुस्कुराना
उस वक़्त
अगर तुम मिल गयी होती
तो आज
तकिये में मुंह छिपाकर
कौन सिसकता ?

संजोये था
कुछ बावली तमन्नाएँ
तोड़ कर तारे टांक दूँ तेरे पल्लू में
माथे पर तेरे चाँद कि सजा दूँ बिंदिया
चुटकी में समेटकर इन्द्रधनुष के रंग
बिखेर दूँ तेरी मांग में
अगर ये सब सचमुच हो गया होता
तो आज
तन्हाई से शादी कौन करता ?

- नमालूम

अहसास

तुम्हारे ह्रदय में
जो प्रेम का
संगम है
उसमें , सरस्वती कि तरह
अदृश्य हूँ मैं
लोगों को हो
या, न हो
पर
तुम्हें, तो
अहसास है न !!

- नमालूम

अनुभूति

अक्सर अनुभूतियों के क्षणों में
जब मैं तुम्हारे ख़त पढता हूँ
तो उसमें मुझे अक्षर नहीं
तुम्हारा ही अक्स नज़र आता है

मात्राएँ, तुम्हारी भौहें
वर्ण, तुम्हारे नेत्र
विराम, तुम्हारी नासिका
और रेखाएं तुम्हारी मुस्कान में
तब्दील होने लगती हैं

इन अलभ्य क्षणों में
आहिस्ता- आहिस्ता
तुम्हारा चेहरा  मेरे चेहरे पर
तुम्हारी भौहें मेरी भौहों पर
तुम्हारे नेत्र मेरे नेत्रों पर
तुम्हारी नासिका मेरी नासिका पर
और तुम्हारी मुस्कान मेरे अधरों पर
चस्पा हो जाती है
तुम्हार समूचा व्यक्तित्व पिघलकर
मेरी धमनियों में दौड़ने लगता है
मेरा ह्रदय तुम्हारी साँसों से
स्पंदित होने लगता है कि
मैं 'मैं' नहीं
'तुम' हूँ.

- नमालूम



संवारती हूँ तुमको

संवारती हूँ तुमको छटक जाते हो मेरे हाथों से
लेते हो परीक्षा धैर्य और साहस कि
बुद्धि और विवेक के छेनी और हथौड़ों से
छीन-छीन कर गढ़ती हूँ तुम्हारी प्रतिमा को
बड़े ही नाजुक हो तुम थोड़े में ही रूठ जाते हो

अदम्य साहस मुझमें है, तुममें साहस भर दूँ
प्यार से सहलाती हूँ तो तुम कमजोर समझते हो
भूल जाते हो, तुम्हारा अनघढ़पन ही मेरी कमजोरी है
तुम्हारा सौन्दर्य, तुम्हारा शिव, तुम्हारा परिष्कार मेरी सफलता है
क्योंकि तुम मेरे जीवन कि अगली कड़ी हो

- डॉ. किरण 'मराली'

हम खुद को भूल जायेंगे

रस्म मुहब्बत कि हम इस तरह निभाएंगे
तुझे याद करके हम खुद को भूल जायेंगे
बात वो मतलब कि खुद वो समझ लेंगे
हम कहाँ -कहाँ उनको आईना दिखायेंगे

रोटियां मुश्किल हैं जिन गरीब लोगों को
डोलियाँ वो बेटी कि किस तरह सजायेंगे
या ख़ुदा गरीबों को बेटियां न तुम देना
वरना पैसे वाले फिर इक बहू जलाएंगे

- वैभव वर्मा

जाने क्या हुआ इस ज़माने को

जाने क्या हुआ इस जमाने को
हक़ भी नहीं देता हाले-दिल सुनाने को
हर तरफ तन्हाई है, फिर भी कहता है मुस्कराने को

इन आंसुओं को अपना मुकद्दर बना लिया
तन्हाईयों के शहर में इक घर बना लिया
सुनते हैं पत्थरों को यहाँ पूजते हैं लोग
इस वास्ते दिल को पत्थर बना लिया

- नमालूम

अकेले बढ़ो तुम

न हो साथ कोई अकेले बढ़ो तुम
सफलता तुम्हारे क़दम चूम लेगी
सदा जो जगाये बिना ही जगा है
अँधेरे उसे देखकर ही भगा है

वह बीज पनपा पनपना जिसे था
घुन क्या किसी के उगाये उगा है
अगर उग सको तो उगो सूर्य से तुम
प्रखरता तुम्हारे चरण चूम लेगी

सही राह को छोड़ कर जो मुड़े हैं
वही देखकर दूसरों को कुढ़े हैं
बिना पंख तौले उड़े जो गगन में
न सम्बन्ध उनके गगन से जुड़े हैं

अगर बन सको तो पखेरू बनो तुम
प्रखरता तुम्हारे क़दम चूम लेगी
न जो वर्फ कि आँधियों से लड़ हैं
कभी पग न उनके शिखर पे पड़े हैं

जिन्हें लक्ष्य से कम, अधिक प्यार खुद से
वही जी चुराकर तरसते खड़े हैं

अगर जी सको तो जियो झूम कर तुम
अमरता तुम्हारे क़दम चूम लेगी
न हो साथ कोई अकेले बढ़ो तुम
सफलता तुम्हारे  क़दम चूम लेगी. ..
24.04.99

ऐ मेरे वतन के लोगो ......

ऐ मेरे वतन के लोगो जरा आँख में भर लो पानी
जो शहीद हुए हैं उनकी जरा याद करो कुर्बानी
जब घायल हुआ हिमालय खतरे में पड़ी आजादी
जब तक थी सांस  लड़ वो फिर अपनी लाश बिछा दी

हो गए वतन पर निछावर वो वीर थे कितने गुमानी

जब देश में थी दीवाली वो खेल रहे थे  होली
जब हम बैठे थे घरों में वो झेल रहे थे गोली
थे धन्य जवान वो अपने, थी धन्य वो उनकी जवानी

शेरोन कि तरह झपटे थे भारत के बहादुर बेटे
इस मुल्क की लाज बचा के मर गए वर्फ पे लेटे
संगीन पर माथा धरकर, सो गए वीर बलिदानी

कोई सिख कोई जाट मराठा, कोई गोरखा कोई मद्रासी
सरहद पर मरने वाला हर वीर था भारतवासी
जो खून गिरा पर्वत पर वह खून था हिन्दोस्तानी

चल तू अपनी राह पथिक

चल तू अपनी राह पथिक, तुझको विजय पराजय से क्या
होने दे होता है जो कुछ, उस होने का हो निर्णय  क्या
भंवर उठ रहे हैं सागर में, मेघ उमड़ते हैं अम्बर में
आंधी और तूफ़ान डगर में
तुझको तो केवल चलना है, चलना ही है तो फिर भय क्या

अरे थक गया क्यों बढ़ता चल, उठ संघर्षों से लड़ता चल
जीवन विषम पंथ चलता चल
अड़ा हिमालय हो यदि आगे , चढ़ूँ कि लौटूं यह संशय क्या

होने दे होता है जो कुछ, उस होने का हो निर्णय क्या

24.04.99

सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तान हमारा

सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा
हम बुलबुले हैं इसके ये गुलसितां हमारा

पर्वत हैं इसके ऊंचे, प्यारी हैं इसकी नदियाँ
आगोश में इसी के गुजरी हजारों सदियाँ
हँसता है बिजलियों पर ये आशियाँ हमारा

वीरान कर दिया था आंधी ने इस चमन को
देकर लहू बचाया गांधी ने इस चमन को

रक्षा करेगा इसकी हर नौजवां हमारा

- इक़बाल

भाग्य से सौदा



बहुत वर्ष हुए हमने भाग्य से एक सौदा किया था, और अब अपनी प्रतिज्ञा पूरी करने का समय आया है- पूरी तौर पर या जितनी चाहिये उतनी तो नहीं, फिर भी काफी हद तक. जब आधी रात के घंटे बजेंगे जबकि सारी दुनिया सोती होगी, उस समय भारत जगकर जीवन और स्वतंत्रता प्राप्त करेगा. एक ऐसा क्षण आता है जो कि  इतिहास में कम ही आता है, जबकि हम पुराने को छोड़कर नए जीवन में पग धरते हैं जबकि एक युग का नत होता है , जबकि राष्ट्र की चिर दलित आत्मा उद्धार प्राप्त करती है. यह उचित है कि इस गंभीर क्षण में हम भारत और उसके लोगों और उससे भी बढ़कर मानवता के हित के लिए सेवा अर्पण करने कि शपथ लें.

  इतिहास के ऊषाकाल में भारत ने अपनी अनंत खोज आरम्भ की दुर्गम सदियाँ, उसके उद्योग, उसकी विशाल सफलता और उसकी असफलताओं से भरी मिलेंगी. चाहे अच्छे दिन आये हों , चाहे बुरे उसने इस खोज को आँखों से ओझल नहीं होने दिया. न उन आदर्शों को ही भुलाया जिनसे उसे शक्ति प्राप्त हुयी. आज हम दुर्भाग्य कि एक अवधि पूरी करते हैं और भारत अपने आपको फिर पहचानता है. जिस कीर्ति पर हम आज आनंद मना रहे हैं, वह और भी बड़ी कीर्ति और आने वाले विजयों कि की दिशा में एक पग है और आगे को अवसर देने वाली है. इस अवसर को ग्रहण करने और भविष्य कि चुनौती स्वीकार करने के लिए क्या हममें काफी साहस और काफी बुद्धि है?

स्वतंत्रता और शक्ति जिम्मेदारी लाती है. वह जिम्मेदारी इस सभा पर है जो कि भारत के सम्पूर्ण सत्ताधारी लोगों का प्रतिनिधित्व करने वाली सम्पूर्ण सत्ताधारी सभा है. स्वतंत्रता के जन्म से पहले हमने प्रसव कि सारी पीड़ाएं सहन की हैं और हमारे ह्रदय इस दुःख कि स्मृति से भरे हुए हैं. इनमें से कुछ पीड़ाएं अब भी चल रही हैं. फिर भी अतीत समाप्त हो चूका है और भविष्य ही हमारा आह्वान कर रहा है.

यह भविष्य आराम करने और दम लेने के लिए नहीं है बल्कि निरंतर प्रयत्न करने के लिए है. जिससे कि हम उन प्रतिज्ञाओं को जो हमने इतनी बार कि हैं और उसे जो आज कर रहे हैं , पूरा कर सकें . भारत की सेवा का अर्थ करोड़ों पीड़ितों कि सेवा है. इसका अर्थ दरिद्रता और अज्ञान और अवसर कि विषमता का अंत करना है.

 हमारी पीढ़ी कि सबसे बड़े आदमी कि यह आकांक्षा रही है कि प्रत्येक आँख के प्रत्येक आंसू को पोंछ दिया जाए. ऐसा करना हमारी शक्ति से बाहर हो सकता है, लेकिन जब तक आंसू और पीड़ा है तब तक हमारा काम पूरा नहीं होगा.

इसलिए हमें काम करना है और परिश्रम करना है और कठिन परिश्रम करना है जिससे कि हमारे स्वप्न पूरे हों . ये स्वप्न भारत के लिए हैं, क्योंकि आज सभी राष्ट्र और लोग आपस में एक दुसरे से गुंथे हुए हैं कि कोई भी बिल्कुल अलग होकर रहने कि कल्पना नहीं कर सकता

---- नई दिल्ली में स्वतंत्रता प्राप्ति की पूर्व संध्या पर 14 अगस्त 1947 को श्री जवाहर लाल नेहरु द्वारा दिया गया भाषण 

23.04.99