Showing posts with label कविता. Show all posts
Showing posts with label कविता. Show all posts

Wednesday, June 11, 2014

लेकर रिमझिम फुहारें

आज फिर सावन आया
लेकर रिमझिम फुहारें
चहुँ ओर पक्षी बोले
बच्चे भीगे ले किलकारें
हमें भी अपना बचपन याद आया
जब खेला करते थे हाट बजारें
वो बचपन की गुजरी फुहारें

कर  गया नम पलकों की कतारें
अब बोझिल हो चला मन
एक सूनापन आ रहा पैर पसारे
जीवन अब एक संग्राम बन गया
फिर भी यह आश है
एक दीपक आएगा पुंज पसारे
जो जीवन में भर देगा हिल्कारें

- 'अज्ञात'
04.09.99

तुमसे बिछुड़कर

तुमसे बिछुड़कर
दर-दर भटकता
उड़ता , फड़फड़ाता
परकटे पक्षी की तरह
चिचियता , भटकता, अटकता
निराशा की अग्नि में जलता

मैंने नहीं रोका था
नई कोपलों को
नहीं टोका था
तुम्हारे फैसलों को
फिर क्यों हुआ वंचित
तुम्हारे प्यार से
तुम्हारे दिए श्रृंगार से

कुछ तो बोलो-
तुमने तो कहा था
मैं हूँ अमृत पुत्र , नहीं क्षुद्र
फिर क्यों सताता है रूद्र

तुम्हारे रहते हुए
सबने मुझे - 'सूखापात' क्यों कहा ?
और क्यों  मुझे बुहार दिया
कहीं छोड़ दिया , कहीं जला दिया
तुम्हारी सत्ता के रहते
तुम्हारी महत्ता के रहते
मैं निराश्रित क्यों रहा ?

- नरेन्द्र मोहन

Tuesday, June 3, 2014

शाम होने को है

शाम होने को है
लाल सूरज समंदर में खोने को है
और उसके पते
कुछ परिंदे
कतार बनाये
उन्हीं जंगलों को चले
जिनके पेड़ों की शाखों पे हैं घोंसले
ये परिंदे
वहीँ लौटकर जायेंगे
और सो जायेंगे
हम ही हैरां हैं
इन मकानों के जंगल में
अपना कहीं भी ठिकाना नहीं
शाम होने को है
हम कहाँ जायेंगे ..

- नमालूम
12.05.99

क्यों बहा जाता हूँ मैं

क्यों बहा जाता हूँ मैं 
भावनाओं के गुबार में
क्यों रखता हूँ
एक सुखद आशा
कुछ पाने की
जबकि
जानता हूँ मैं
कोई नहीं, समझ सकता
मेरी संवेदनाएं
इस मतलबी संसार में
जहाँ,
अपने स्वार्थ के लिए
किसी की भावनाओं से खेलना
एक मामूली बात है
वहां नि:स्वार्थ , कोई
क्या, देगा मुझे
तरसता हूँ सुनने को
डॉ शब्द आत्मीयता के
सोचता हूँ
बनूँ मैं भी स्वार्थी
खेलूं दूसरों की भावनाओं से, परन्तु
यह सम्भव नहीं , क्योंकि
कुछ लोग जन्म लेते हैं
सिर्फ सहने के लिए !!

- नमालूम

एक अनसुलझा रिश्ता

एक अनसुलझा रिश्ता , अनजाना सम्बन्ध
एक अनसुलझी पहेली से उलझता जा रहा हूँ मैं
मैं इस रिश्ते को नाम नहीं देना चाहता
परन्तु संसार ने इसको नाम दे दिया है प्रेम का
मैं इसे झुठलाता हूँ
बहुत अंतर्द्वंद होता है मन में
परन्तु अब थक चुका हूँ
लड़ते-लड़ते अपने मन से
मजबूर हो गया हूँ
इस तथ्य को स्वीकार करने के लिए
हाँ! शायद मुझे प्यार हो गया है
कोई अब बतलाये
किसके सहारे ही खड़ा रहूँ
एक दिए की तरह तूफ़ान में
हाँ ! मुझे जरूरत है
एक सहानुभूति की
एक स्नेह-सिक्त दृष्टि की
ताकि मैं पा सकूँ
किनारा , प्रेम रुपी मझधार में
शायद,
तुम्हरे प्रेम का भंवर ही
मेरा किनारा है ..

- 'अमरजीत'

' भाई द्वारा बहन के लिए

जीवों से प्यार है मुझे
इन सारे रिश्तों की
जिनकी मुझे जरूरत महसूस
होती रही है
एक लम्बी लिस्ट है मेरे पास
लेकिन उसमें सबसे ऊपर है
मेरी बड़ी बहन
जिसके प्यार के बारे में
मैं सोचता हूँ
क्या करती, वह अगर होती
मारती, डांटती या प्यार करती
मारती तो नहीं
मुझे यकीन है
हाँ, डांटती जरूर मगर प्यार से
वह ऐसा करती वह वैसा करती
मैं बहुत प्यार से सोचता हूँ
लेकिन क्या मैं तब भी
सोचता एक पल भी
इतने प्यार से
जबकि वह होती .....

- 'कशिश'

Sunday, June 1, 2014

नारी सभा में चल दिए

एक दिन एक सफ़ेद पोश नारी सभा में आया
नारियों के शोषण से सम्बंधित खूब लेक्चर फरमाया

बोले वो कि नारी तो सारे संसार की जननी है
और उसी संसार के जुल्मों से उसका कलेजा छलनी है

अब समाज कल्याण के तहत हमको ये कराना है
अब औरत को समता का अधिकार दिलाना है

ख़त्म कर अपना लेक्चर वो अपने घर को आये
आकर घर इंतज़ार किया कि जल्दी दिन ढल जाये

शाम ढलते ही रात हुयी कुछ उनके नुमाइंदे आये
रात रंगीन करने के लिए वो नायाब तोहफा लाये

तोहफे में भी एक लाचार और  बेबस नारी
जो सुबह इन्हीं की नारी सभा में बैठी थी बेचारी

वो बोले उससे हमें खुश कर दो रानी
अरे रातों रात बना दूंगा मैं तुम्हें महारानी

हाथ जोड़े पाँव छुए उसने , पर कोई हथकंडे न चल पाए
लूटकर उसका सतीत्व वो मन ही मन मुस्काए

रात ढली वो  काली फिर एक नयी सुबह आई
नींद से जागे जब वो तो फोन की घंटी घनघनाई

खबर थी कि आज उनको एक समाज कल्याण कराना है
किसी नारी सभा में फिर अपना लेक्चर सुनाना है

रात की घटना सोचकर वो में में बड़ा खुश हुए
नहा - धो और नाश्ता कर फिर नारी सभा में चल दिए

- नमालूम
 

नव वर्ष की शुभकामनाएं

भृकुटियों में पाला नहीं
जा सकता
ह्रदय में संभाला नहीं
जा सकता
यह नवीनता लेकर
आएगा
फिर बीता कल हो
जायेगा
हर बार बसंत
आता है
साश्वत तो नहीं ठहर
पाता है
नव वर्ष तो ऐसे
ही आता है
जीवन्तता के इन्द्रधनुषी
रंगों को भर लाना है
दुःख एक छिपा होगा
एक वर्ष और कम होगा
खुशियाँ भी तो कम
न होंगीं
सबको भविष्य की
कल्पना होगी
नए-नए आयाम
दिखेंगे
सपने सब साकार
लगेंगे
नव वर्ष में सबको
मिले सुख समृद्धि
लक्ष्य हो निश्चित
प्रयासों में हो वृद्धि
उन्नति करे अपना
देश
शुभकामनाएं सहित
'कशिश' का सन्देश

- कशिश

याद

एक बात पूछूं
तुम्हें कभी याद आते हैं
वे पल, वे बीते पल
जिनमें कभी हमने समय के सीने पर
कहानियां लिखी थीं एक दूसरे के चाहत की

********************************

जब कभी कोयल कूकती है
अगराईयों में
क्या तुम भी याद करती हो
उन लम्हों को
उन गुजरे लम्हों को
जब तुम्हारा चेहरा
मेरी हथेलियों में होता था
और
तुम भटकती जाती थी
दूर कहीं दूर

*************************

मुझे अपने करीब पाकर
नज़रों का झुक जाना
सासों का बहक जाना
और
अपने थरथराते होठों की
तुम्हें कुछ याद आती है ?

****************************

क्या कभी चुभती है
तुम्हारे सीने में
उन टूटे सपनों की किरण
जिन्हें कभी सजाया था हमने
एक दूसरे की खुली हथेलियों पर
अपने होठों की तुलिका से खामोश
ठहरे हुए पलों में ?

- नमालूम

Saturday, May 31, 2014

कितने रूप अभी धरने हैं

कितने रूप अभी धरने हैं
कितने नाम अभी खोने हैं
पूछ रहा हूँ मैं दर्पन से
क्या-क्या परिवर्तन होने हैं

दर्पन जिसमें  दुनिया देखी
स्वप्न सजाये साथ तुम्हारे
कभी नील झीलों में तैरे
कभी गगन में पंख पसारे

और गगन में उड़ते -उड़ते
अनायास बंट गयीं दिशाएं
संभव है फिर कहीं मिलें हम
अब केवल परिचय ढ़ोने हैं

दर्पन जिसमें हमने अपने
कैसे-कैसे रूप निहारे
कभी किसी की ऊँगली थामी
कभी किसी के केश संवारे

किन्तु अचानक जाने किससे
भूल हो गयी दर्पन चटका
चिट्खे दर्पन में परछाईं
के दो टुकड़े ही होने हैं

दर्पन जिसमें भीगी आँखें
लेते विदा दिखे दो तारे
दोनों गुमसुम सोच रहे थे
हम क्या जीते - हम क्या हारे

एक अनुत्तर प्रश्न स्वयं से
आखिर ऐसा क्यों होता है
अब तक जान नहीं पाया हूँ
ये किसके जादू टोने हैं

- राजेन्द्र तिवारी
10.05.99

सपनों का मानचित्र

सपनों के मानचित्र
अपनों ने फाड़ दिए
यादों के ढेर पर रह गयी
काग़ज़ के टुकड़े  सी ज़िन्दगी

बंधन के मरू-थल में
चंचल हरियाली सी
सुधियों के सावन में
बनती मेघाली सी

हल्की सी भारी सी
झोंके हर मौसम के
आंसू के आखर में सह गयी
काग़ज़ के टुकड़े  सी ज़िन्दगी

मन के अंधियारे में
आशाएं फूटी हैं
बुनियादें जीवित हैं
दीवारें टूटी हैं

चन्दन की घाटी में
विषधर भी होते हैं
चुपके से सच्चाई कह गयी
काग़ज़ के टुकड़े  सी ज़िन्दगी

पीछे से दूषित है
आगे से दर्पण है
हँसना क्या रोना क्या
सुख-दुःख ही जीवन है

फूलों की गलियों में
कांटे भी होते हैं
शावों की धार में बह गयी
काग़ज़ के टुकड़े  सी ज़िन्दगी

- हरिलाल
10.05.99

बादलों के दल नहीं थे

पेड़ में बस पत्तियां थीं फल नहीं थे
इसलिए तोते यहाँ पर कल नहीं थे

हम अकेले ही चले थे नाव लेकर
हंसने वाले थे बहुत संबल नहीं थे

खेत सूखे थे मगर जोते हुए थे
पर उमड़ते बादलों के दल नहीं थे

आ गए फिर लौटकर जब स्वागतम है
तुम नहीं थे, आज वाले पल नहीं थे

कल कुहासा था, अँधेरा था, दिए थे
पूर्णिमा के पल्लवी शतदल नहीं थे

आज उनके द्वारा तोरण से सजे हैं
जिनके तन पर कल यहाँ वल्कल नहीं थे

- नमालूम

सत्रहवां सावन

तेरे जीवन का सत्रहवां सावन
कितना सुन्दर कितना पावन

तेरे रूप में आया निखार
जब आई इस सावन की फुहार

तेरी सूरत कितनी भोली
लगती जैसे नशे की गोली

जब बजते तेरे पायल
कर देते मेरे दिल को घायल

किस से पाई है तुमने ये दौलत
सब है इस सावन की बदौलत

यह सावन हमेशा बना रहे
तेरा रूप हमेशा खिला रहे

- नमालूम
10.05.99

कमरे पर अकेला शांत बैठा था

कमरे पर अकेला शांत बैठा था
कुछ लिखने की अभिलाषा थी चाहत थी
क्या लिखूं समझ में नहीं आता था
किताबें उलटी, पलटी, देखा खिड़की खोली
दरवाजे खोले और इधर उधर झाँका
कुछ समझ में नहीं आया, दोस्त से पूछा
उत्तर दिय कहानी कैसे लिखते हैं
मुझे नहीं मालूम परन्तु इतना
जरूर मालूम है जब भी विचारक
कुछ लिखता है खुले आसमान के नीचे

जाता है, तलाश कर कमरे के बाहर
रोड के किनारे गया हर भौंपो वाले
वाहन को हाथ दिया, खुले आसमान तक
पहुँचाने का आग्रह किया निराश रहा
अन्तोगत्वा एक टेम्पो वाले से भी यही जिक्र किया
उसने टेम्पो रोका उसका धुंआ
मुख पर फेंका, मैं बौखला गया
वापसकमरे पर आया
बेचैनी थी
कमरे से बाहर मैदान पर गया
रात्री 14:30 का समय था
ठंडा मौसम था
बदन पे पतला शौल था
नीचे अगल बगल देखा
कुछ समझ में नहीं आया
तब आसमान की ओर तिरछी निगाहें रखीं
समझ में आ गया
और कहानी लिख दी-----

- उमेश मिश्रा
09.05.99


नहीं ऐसे नहीं

नहीं,  ऐसे नहीं
इस तरह नहीं पढ़ी जाती कविता
घोड़े पर सवार
सचमुच चाहते हो पढ़ना
तो पढ़ो उसे
उस दिन की तरह
जिस दिन पहली बार
पढ़ा था तुमने
उसकी आँखों में
अपना चेहरा

- गोविन्द

मैं दिखावा कभी नहीं करता

मैं दिखावा कभी नहीं करता
वैसे दिख जाये तो क्या कीजै
यों मुझे रोकथाम भाती है
पर तबियत भी भला क्या तोड़ें
मैंने बैसाख जेठ का सूरज
दोपहर बन के झेल डाला है
अब अगर छांव प् गया हूँ तो
उसकी ममता किस तरह छोड़ूँ

- गोपेश

मेरी पसंद

मन के द्वार पहुंचकर भी कुंठाएं लौट गयीं
मन की अपनी सुघड़ आस्था
कजराए विश्वास
धरती जिसकी गंधवती
फूलों का है आकाश
गीतों का उल्लास देख पीड़ाएं लौट गयीं
संगमरमरी देह सपन की
अंगड़ाई न थमे
कटुता की काई उस पार तब
कैसे कभी जमे
शगुन लिए आने वाली बाधाएं लौट गयीं
तैर रहे संवेदन सारे
गलबहियां डाले
भीतर बजते हैं मिठास के
मांदल मतवाले
सन्नाटे की सब उदास छायाएं लौट गयीं
मन के द्वार पहुंचकर
कुंठाएं लौट गयीं

- इंदिरा परमार
09.05.99

जनम जनम की प्यास

मेरे  प्रियतम
है क्या मेरा अपना
जो कर दूँ तुम्हें अर्पित
जब हर रात्री , हर भोर
हर क्षण , हर पल, हर ओर
तुम ही तुम हो
तुम स्वयं अपनी माया
हो स्वयं अपनी छाया
है जब जगत द्वेत से वंचित
तब कैसे क्या करूँ समर्पित !

वाद्द् तुम्हारे
गीत तुम्हारे
स्वर तुम्हारे
भाव भी नहीं हमारे
ब्रह्मांड इतना विराट
कि.-----------
कहीं नहीं दिखते पाट
बह रही ऐसी चेतन रसधार
देह का नहीं बचा आधार
फिर कैसे कोई डूबे
कैसे उबरे
अब तो,
सभी कुछ है -
केवल तुम्हारे सहारे
क्षितिज में समा गए किनारे
मुझे नहीं आता वंदन
न आता करना अभिनंदन
तुम ही चन्दन-
तुम ही धूप
तुम हो वाणी
फिर भी मूक
तुम ही हर रूप
तुम ही बनते अरूप
तुम जग के श्रृंगार
हो तुम कण -कण की पुकार
करो तुम -
मुझ पर उपकार
अब कर लो
मुझे स्वीकार
अंतस भेद मिटा दो
जनम-जनम की प्यास बुझा दो।

- नरेन्द्र मोहन

09. 05. 99


Friday, May 30, 2014

एक लहर

एक लहर
जो निकलती अनायास
पाताल के गर्भ से
और छू लेती
गौरीशंकर को
डुबो देती समस्त संकल्पों को
तोड़ देती
पर्वतों के बाँध
मात्र स्पर्श से जिसके
पिघल जाता
तप का हिमालय
और मिलन की अभिलाषा
फिर जाग जाती
मैं सोचता था
समष्टि के महासागर को
मैं बाँध लूँगा
अपने तप से
कामना को बाँध लूँगा
पर अब तो
उसकी स्मृति भी
कर देती विचलित
चेतना हो जाती व्यथित
काश मैं बता पाता
इस व्यथा को
उन सांस लेते
पत्थरों के बुतों को
जो पुस्तकें लिखते
धर्म ग्रन्थ बांचते
और देते व्यवस्था
थोपी गयी मान्यताओं से
जीवित कर देते
रूढ़ियों का वृत्तासुर
जो नित्य
हर क्षण , हर पल
हांक रहा
घृणा का रथ
निगल रहा, सृजन का पथ

- नरेन्द्र मोहन

09.05.99

सत्य का निवास

आपाधापी और होड़
जीवन का हर मोड़
जब है तुम्हारा ही दिया
तब मैं ही क्यों करूँ भेद
कि.................
क्या है अमृत और क्या विष
जो तुमने दिया
वही मैंने पिया
अंकुर फूटें, न फूटें
वृक्ष बनें या कोपलें रूठें
जीवन लतिका मुरझाये
या सूख जाये
जब सब है-
तुम्हारी इच्छा का ही फल
फिर कैसा आज, कैसा कल
तुम्हारी इच्छा ...........
तुम्हारी ही दी दीक्षा
जो तुम्हारे किसी रूप से
छाया या धूप से
चाहे अनचाहे मिली
और मैंने ग्रहण कर ली
बिना  यह पहचाने
कहाँ है सत्य  का निवास
अथवा है असत्य का वास
फिर तुम हो दूर क्यों?
अब तो मत छोड़ो
मेरा साथ
बढाओ अपना हाथ
मुझे अपनाओ
सारे रहस्य समझाओ
जीवन और मृत्यु
है तुम्हारा रूप
जो धूप छाँव बन आता
और बिना पूछे लौट जाता
तुम्हारे ही गर्भ में
समा जाता

- नरेन्द्र मोहन
9.05.99