Saturday, May 31, 2014

कितने रूप अभी धरने हैं

कितने रूप अभी धरने हैं
कितने नाम अभी खोने हैं
पूछ रहा हूँ मैं दर्पन से
क्या-क्या परिवर्तन होने हैं

दर्पन जिसमें  दुनिया देखी
स्वप्न सजाये साथ तुम्हारे
कभी नील झीलों में तैरे
कभी गगन में पंख पसारे

और गगन में उड़ते -उड़ते
अनायास बंट गयीं दिशाएं
संभव है फिर कहीं मिलें हम
अब केवल परिचय ढ़ोने हैं

दर्पन जिसमें हमने अपने
कैसे-कैसे रूप निहारे
कभी किसी की ऊँगली थामी
कभी किसी के केश संवारे

किन्तु अचानक जाने किससे
भूल हो गयी दर्पन चटका
चिट्खे दर्पन में परछाईं
के दो टुकड़े ही होने हैं

दर्पन जिसमें भीगी आँखें
लेते विदा दिखे दो तारे
दोनों गुमसुम सोच रहे थे
हम क्या जीते - हम क्या हारे

एक अनुत्तर प्रश्न स्वयं से
आखिर ऐसा क्यों होता है
अब तक जान नहीं पाया हूँ
ये किसके जादू टोने हैं

- राजेन्द्र तिवारी
10.05.99