मन के द्वार पहुंचकर भी कुंठाएं लौट गयीं
मन की अपनी सुघड़ आस्था
कजराए विश्वास
धरती जिसकी गंधवती
फूलों का है आकाश
गीतों का उल्लास देख पीड़ाएं लौट गयीं
संगमरमरी देह सपन की
अंगड़ाई न थमे
कटुता की काई उस पार तब
कैसे कभी जमे
शगुन लिए आने वाली बाधाएं लौट गयीं
तैर रहे संवेदन सारे
गलबहियां डाले
भीतर बजते हैं मिठास के
मांदल मतवाले
सन्नाटे की सब उदास छायाएं लौट गयीं
मन के द्वार पहुंचकर
कुंठाएं लौट गयीं
- इंदिरा परमार
09.05.99
मन की अपनी सुघड़ आस्था
कजराए विश्वास
धरती जिसकी गंधवती
फूलों का है आकाश
गीतों का उल्लास देख पीड़ाएं लौट गयीं
संगमरमरी देह सपन की
अंगड़ाई न थमे
कटुता की काई उस पार तब
कैसे कभी जमे
शगुन लिए आने वाली बाधाएं लौट गयीं
तैर रहे संवेदन सारे
गलबहियां डाले
भीतर बजते हैं मिठास के
मांदल मतवाले
सन्नाटे की सब उदास छायाएं लौट गयीं
मन के द्वार पहुंचकर
कुंठाएं लौट गयीं
- इंदिरा परमार
09.05.99