Saturday, May 31, 2014

मेरी पसंद

मन के द्वार पहुंचकर भी कुंठाएं लौट गयीं
मन की अपनी सुघड़ आस्था
कजराए विश्वास
धरती जिसकी गंधवती
फूलों का है आकाश
गीतों का उल्लास देख पीड़ाएं लौट गयीं
संगमरमरी देह सपन की
अंगड़ाई न थमे
कटुता की काई उस पार तब
कैसे कभी जमे
शगुन लिए आने वाली बाधाएं लौट गयीं
तैर रहे संवेदन सारे
गलबहियां डाले
भीतर बजते हैं मिठास के
मांदल मतवाले
सन्नाटे की सब उदास छायाएं लौट गयीं
मन के द्वार पहुंचकर
कुंठाएं लौट गयीं

- इंदिरा परमार
09.05.99