Wednesday, June 11, 2014

तुमसे बिछुड़कर

तुमसे बिछुड़कर
दर-दर भटकता
उड़ता , फड़फड़ाता
परकटे पक्षी की तरह
चिचियता , भटकता, अटकता
निराशा की अग्नि में जलता

मैंने नहीं रोका था
नई कोपलों को
नहीं टोका था
तुम्हारे फैसलों को
फिर क्यों हुआ वंचित
तुम्हारे प्यार से
तुम्हारे दिए श्रृंगार से

कुछ तो बोलो-
तुमने तो कहा था
मैं हूँ अमृत पुत्र , नहीं क्षुद्र
फिर क्यों सताता है रूद्र

तुम्हारे रहते हुए
सबने मुझे - 'सूखापात' क्यों कहा ?
और क्यों  मुझे बुहार दिया
कहीं छोड़ दिया , कहीं जला दिया
तुम्हारी सत्ता के रहते
तुम्हारी महत्ता के रहते
मैं निराश्रित क्यों रहा ?

- नरेन्द्र मोहन