Friday, May 30, 2014

एक लहर

एक लहर
जो निकलती अनायास
पाताल के गर्भ से
और छू लेती
गौरीशंकर को
डुबो देती समस्त संकल्पों को
तोड़ देती
पर्वतों के बाँध
मात्र स्पर्श से जिसके
पिघल जाता
तप का हिमालय
और मिलन की अभिलाषा
फिर जाग जाती
मैं सोचता था
समष्टि के महासागर को
मैं बाँध लूँगा
अपने तप से
कामना को बाँध लूँगा
पर अब तो
उसकी स्मृति भी
कर देती विचलित
चेतना हो जाती व्यथित
काश मैं बता पाता
इस व्यथा को
उन सांस लेते
पत्थरों के बुतों को
जो पुस्तकें लिखते
धर्म ग्रन्थ बांचते
और देते व्यवस्था
थोपी गयी मान्यताओं से
जीवित कर देते
रूढ़ियों का वृत्तासुर
जो नित्य
हर क्षण , हर पल
हांक रहा
घृणा का रथ
निगल रहा, सृजन का पथ

- नरेन्द्र मोहन

09.05.99