Tuesday, May 20, 2014

जीवन से भरी

जीवन से भरी तेरी आँखें मजबूर करें जीने के लिए
सागर भी तरसते रहते हैं तेरे रूप का रस पीने के लिए

तस्वीर बनाये क्या कोई, क्या कोई लिखे तुझ पे कविता
रंगों छंदों में समाएगी , किस तरह से इतनी सुन्दरता, सुन्दरता

इक धड़कन है  तू दिल के लिए
इक जाम है तू जीने के लिए

मधुवन की सुगंध है साँसों में
बाहों में कमल की कोमलता
किरणों का तेज है चेहरे पे
हिरणों कि है तुझमें चंचलता , चंचलता

आँचल का तेरे है तार बहुत
कोई चाक जिगर सीने के लिए

जीवन से भरी तेरी आँखें ........

- इन्दीवर

पल पल

पल -पल दिल के पास तुम रहती हो
जीवन मीठी प्यास ये कहती हो

हर शाम आँखों पर तेरा आँचल लहराए
हर रात यादों कि बारात ले आए
मैं सांस लेता हूँ, तेरी खुशबू  आती है
इक महका-महका सा पैगाम लाती है
मेरे दिल की धड़कन भी तेरे गीत गाती है

कल तुझको देखा था मैंने अपने आँगन में
जैसे कह रही थी तुम मुझे बाँध लो बंधन में
ये कैसा रिश्ता है, ये कैसे सपने हैं
बेगाने होकर भी क्यों लगते अपने हैं
मैं सोच में रहता हूँ, डर-डर कर कहता हूँ

तुम समझोगी क्यूँ इतना मैं तुम्हें प्यार करूँ
तुम समझोगी दीवाना मैं भी इकरार करूँ
दीवानों कि ये बातें दीवाने जानते हैं
तुम यूँ ही जलाती रहना आ -आ कर ख्वाबों में

- राजेन्द्र कृष्ण

कभ-कभी

कभी-कभी मेरे दिल में ख्याल आता है
कि तुमको बनाया गया है मेरे लिए
तू अब से पहले  में बस रही थी कहीं
तुझे ज़मीं पे बुलाया गया  है  लिए

ये बदन ये निगाहें मेरी अमानत हैं
ये गेसुओं की घनी छाँव है मेरी खातिर
ये होंठ और ये बाँहें मेरी अमानत हैं

कि जैसे बजती हैं शहनाईयां सी राहों में
सुहागरात है घूंघट उठा रहा हूँ मैं
सिमट रही है तू शर्मां के अपनी बाहों में

कि जैसे तू मुझे चाहगी उम्र भर यूँ ही
उठेगी मेरी तरफ प्यारकी नज़र यूँ ही
मैं जानता हूँ, तू गैर है, मगर यूँ ही

मैं और मेरी तन्हाई
अक्सर ये बातें करते हैं
तुम होतीं तो कैसा होता
तुम ये कहतीं
तुम वो कहतीं
तुम इस बात पे हैरां होतीं
तुम उस बात पे कितनी हंसतीं
तुम होतीं तो ऐसा होता
तुम होतीं तो वैसा होता
मैं और मेरी तन्हाई

अक्सर ये बातें करते हैं

ये कहाँ आ गए हम, यूँ ही साथ-साथ चलते
तेरी बांहों में है जानम मेरी जिस्म जां पिघलते

ये रात है या तुम्हारी जुल्फें खुली हुई हैं
है चांदनी या तुम्हारी नज़रों से
मेरी रातें धुली  हुयी हैं
ये चाँद है या तुम्हारा कंगन
सितारे हैं या तुम्हारा आँचल
हवा का झोंका है या तुम्हारे बदन की खुशबू
ये पत्तियों की है सरसराहट कि
तुमने चुपके से कुछ कहा है
ये सोचता हूँ मैं कबसे गुमसुम की
जबकि मुझको ये खबर है कि
तुम नहीं हो, कहीं नहीं हो
मगर ये दिल है  कि , कह रहा है कि
तुम यहीं हो, यहीं कहीं हो-

तू बदन है मैं हूँ छाया , तू नहीं तो मकैन कहाँ हूँ
मुझे प्यार करने वाले तू जहाँ है मैं वहां हूँ
हमें मिटना ही था हमदम किसी राह भी निकलते

मजबूर ये हालात इधर भी  हैं, उधर भी
तन्हाई की इक रात इधर भी है उधर भी
कहने को तो बहुत कुछ है
मगर किससे  कहें हम
कब तक यूँ खामोश रहें और सहें  हम

दिल कहता है-
दुनिया की हर इक रस्म उठा दें
दीवार जो हम दोनों में है

आज गिरा दें
क्यों दिल में सुलगते रहें
लोगों को बता दें
हाँ, हमको मुहब्बत है
मुहब्बत है , मुहब्बत है
अब दिल में यही बात
इधर भी है और
उधर भी .........

जावेद अख्तर

प्रतीक्षा

क्या तुमने उस बेला मुझे बुलाया था कनु ?
लो मैं सब छोड़ छाड़ कर आ गयी !

इसलिए तब
मैं तुममें बूँद की तरह विलीन नहीं हुई थी
इसीलिए मैंने अस्वीकार कर दिया
तुम्हारे गोलोक को
कालावाधिहीन रस
क्योंकि मुझे फिर आना था !

तुमने मुझे पुकारा था न
मैं आ गयी हूँ कनु  !

और जन्मान्तरों की पगडण्डी के
कठिनतम मोड़ पर खड़ी होकर
तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही हूँ
कि, इस बार इतिहास बनाते समय
तुम अकेले न छूट जाओ !

सुनो मेरे प्यार !!

प्रगाढ़ के विलाक्षणों में अपनी अन्तरंग
सखी को तुमने बांहों में गूंथा
पर उसे इतिहास में गूंथने से हिचक क्यों गए प्रभु ?

बिना मेरे कोई भी अर्थ कैसे निकल पाता
तुम्हारे इतिहास को
शब्द, शब्द, शब्द......
राधा के बिना
सब
रक्त के प्यासे
अर्थहीन शब्द !

सुनो मेरे प्यार !
तुम्हें मेरी जरूरत थी न
लो मैं सब छोड़कर आ गयी हूँ
ताकि कोई यह न कहे
कि तुम्हारे अन्तरंग के लिए सखी
केवल तुम्हारे सांवरे तन के नशीले संगीत कि
ले बनकर रह गयी.....
मैं आ गयी प्रिय !!
मेरी वेणी में अग्नि पुष्प गूंथने वाली
 तुम्हारी उँगलियाँ
अब इतिहास में अर्थ क्यों  नहीं गूंथती?
तुमने पुकारा था न !

मैं पगडण्डी के कठिनतम मोड़ पर
तुम्हारी प्रतीक्षा में
अडिग खड़ी हूँ कनु मेरे !!

( धर्मवीर भारती कृत 'कनुप्रिया' से )

25.04.99

Monday, May 19, 2014

एक प्रश्न

अच्छा मेरे महान कनु
मान लो कि क्षण भर को
मैं यह स्वीकार लूँ
कि मेरे ये सारे तन्मयता के गहरे क्षण
सिर्फ भावावेश थे
सुकोमल कल्पनाएँ थीं
रंगे हुए, अर्थहीन आकर्षक शब्द थे

मान लो कि
क्षण भर को
मैं यह स्वीकार लूँ
कि
पाप, पुन्य, धर्म अधर्म न्याय दंड
क्षमाशील वाला यह तुम्हार युद्ध सत्य है-

तो भी मैं क्या करूँ कनु
मैं तो वही हूँ
तुम्हारी बावरी मित्र
जिसे सदा उतना ही ज्ञान मिला
जितना तुमने उसे दिया

जितना तुमने मुझे दिया अभी तक
उसे पूरा समेटकर भी
आसपास जाने कितना है तुम्हारे इतिहास का
जिसका कुछ अर्थ मुझे समझ में नहीं आता है .

अपनी जमुना में
जहाँ घंटों अपने को निहारा करती थी मैं
वहां अब शस्त्रों से लदी  हुयी
अगणित नौकाओं की पंक्ति रोज-रोज कहाँ जाती है?
धारा में बह-बह कर आते हुए टूटे रथ
जर्जर पताकाएं किसकी हैं ?

हारी हुयी सेनाएं, जीती हुयी सेनाएं
नभ को कांपते हुए,युद्ध घोष क्रंदन स्वर
भागे हुए सैनिकों से सुनी हुयी
अकल्पनीय अमानुषिक घटनाएं युद्ध की
क्या ये सब सार्थक हैं ?
चरों दिशाओं से
उत्तर को उड़ -उड़ कर जाते हुए
गिद्धों को क्या तुम बुलाते हो
( जैसेबुलाते हो भटकी गायों को )

जितनी समझ तुमसे पाई है अब तक कनु
उतनी बटोरकर भी
कितना कुछ है जिसका
कोई भी अर्थ मुझे समझ नहीं आता है

अर्जुन की तरह कभी
मुझे भी समझा दो
सार्थकता है क्या बंधु ?
मान लो तन्मयता के गहरे क्षण
रंगे हुए अर्थहीन , आकर्षक शब्द थे
तो सार्थक फिर क्या है कनु ?
पर इस सार्थकता को तुम मुझे
कैसे समझोगे कनु ?

शब्द, शब्द, शब्द......
मेरे लिए सब अर्थहीन हैं
यदि वे मेरे पास बैठकर
मेरे रूखे कुन्तलों  में उँगलियाँ उलझाये हुए
तुम्हारे कांपते अधरों से नहीं निकलते

शब्द, शब्द, शब्द ...
कर्म, स्वधर्म, निर्णय, दायित्व ....
मैंने भी गली- गली सुने हैं ये शब्द
अर्जुन ने इनमें चाहे कुछ भी पाया हो
मैं इन्हें सुनकर कुछ नहीं पाती प्रिय
सिर्फ   राह में ठिठककर
तुम्हारे उन अधरों कि कल्पना करती हूँ
जिनसे तुमने ये शब्द पहली बार कहे होंगे

तुम्हारा सांवला लहराता हुआ जिस्म
तुम्हारी किंचित मुड़ी हुई शंखग्रीवा
तुम्हारी उठी हुई चन्दन बाहें
तुम्हरी अपने में डूबी हुई
अधर्खुली दृष्टि
धीरे -धीरे हिलते हुए
तुम्हारे जादू भरे होंठ  !

मैं कल्पना करती हूँ कि
अर्जुन की तरह मैं हूँ
और मेरे मन में मोह उत्पन्न हो गया है
और मैं नहीं जानती कि युद्ध मौन सा है
और मैं किसके पक्ष में हूँ
और समस्या क्या है
और लड़ाई किस बात की है
लेकिन मेरे मन में मोह उत्पन्न हो गया  है
क्योंकि तुम्हारे द्वारा समझाया जाना
मुझे बहुत अच्छा लगता है
और सेनायें  स्तब्ध खड़ी हैं
और इतिहास स्थगित हो गया है
और तुम मुझे समझा रहे हो ..............

कर्म, स्वधर्म, निर्णय, दायित्व
शब्द,शब्द, शब्द.......
मेरे लिए नितांत अर्थहीन हैं
मैं इन सबके परे अपलक तुम्हें देख रही हूँ
हर शब्द को अंजुरी बनाकर
बून-बूँद तुम्हें पी रही हूँ
और तुम्हारा तेज
मेरे जिस्म के एक-एक मूर्छित संवेदन को
धधका रहा है

और तुम्हारे जादू  भरे होठों से
रजनी गंध के फूलों कि तरह ताप-ताप शब्द झर रहे हैं
एक के बाद एक के बाद एक

कर्म, स्वधर्म , निर्णय, दायित्व
मुझ तक आते-आते सब बदल गए हैं
मुझे सुना पड़ता है केवल
राधन, राधन, राधन

शब्द,शब्द, शब्द.......
तुम्हारे शब्द अगणित हैं कनु- संख्यातीत
पर उनका अर्थ मात्र एक है
मैं
मैं
केवल मैं !
फिर उन शब्दों से
मुझी को
इतिहास कैसे समझोगे कनु ?

- नमालूम




 

मेरे स्वर्णिम संगीत

यह जो अकस्मात
आज मेरे जिस्म के सितार के
एक-एक तार में झंकार उठे हो
सच बतलाना मेरे स्वर्णिम संगीत
तुम कब से मुझमें छिपे सो रहे थे
सुनो, मैं अक्सर अपने शारीर को
पोर-पोर को अवगुंठन में ढककर तुम्हारे सामने गयी
मुझे तुमसे कितनी लाज आती थी
मैंने अक्सर अपनी हथेलियों में
अपना लाज से आरक्त मुंह छिपा लिया है
मुझे तुमसे कितनी लाज आती थी
मैं अक्सर तुमसे केवल तम के प्रगाढ़ परदे में मिली
जहाँ हाथ को हाथ नहीं सूझता था
मुझे तुमसे कितनी लाज आती थी

पर हाय मुझे क्या मालूम था
कि इस बेला जब अपने को
अपने से छिपाने के लिए मेरे पास
कोई आवरण नहीं रहा
तुम मेरे जिस्म के एक से झंकार उठोगे

सुनो! सच बतलाना मेरे स्वर्णिम संगीत

इस क्षण की प्रतीक्षा में तुम
कब से मुझमें छिपे सो रहे थे
यह जो दोपहर के सन्नाटे में
यमुना के निर्जन घाट परअपने सारे वस्त्र
किनारे रख
 मैं घंटों जल में निहारती हूँ
क्या तुम समझते कि मैं
इस भांति अपने को देखती हूँ
नहीं मेरे सांवरे !

यमुना के नीले जल में
मेरा यह बेबस लता सा कांपता तन बिम्ब
और उसके चरों ओर सांवली गहराई का अथाह प्रसार
जानते हो कैसा लगता है ?

मानो यह यमुना की सांवली गहरी नहीं है
यह तुम हो जो सरे आवरण दूर कर
मुझे चारों ओर से कण-कण रोम-रोम
अपने श्यामल प्रगाढ़
अथाह आलिंगन में पोर-पोर कसे हुए हो !

यह क्या तुम समझते हो
घंटों जल में - मैं अपने को निहारती हूँ
नहीं मेरे सांवरे !!

- नमालूम

आसपास

मन के आँगन में एक खटका
चुपके से किसी की दस्तक
ठहरा सा दिन
नि: स्तब्ध रात
आशा के कुछ दीप
विश्वास कि बरसात
कौन!
कौन यहाँ ?
ढूंढता हर पल आसपास
शायद तुम ही
तुम ही तो हो
मेरे मन के आसपास

- नमालूम

मंजरी परिणय

यह जो मैं  कभी- कभी चरम के साक्षात्कार के क्षणों में बिलकुल जड़ और निस्पंद हो जाती हूँ
इसका मर्म तुम समझते क्यूँ नहीं सांवरे !

तुम्हारी जन्म-जन्मान्तर की रहस्मयी लीला की एकान्त संगिनी मैं
इन क्षणों में अक्स्मात
तुमसे पृथक नहीं हो जाती मेरे प्राण
तुम यह क्यों नहीं समझ पाते कि लाज
सिर्फ जिस्म की नहीं होती
मन की भी होती है
एक मधुर भय
एक अंनजाना  संशय
एक आग्रह भरा गोपन
एक नि:स्वार्थ वेदना , उदासी
जो मुझे बार-बार चरम सुख के क्षणों में भी अभिभूत कर लेती है
भय, संशय,गोपन, उदासी
ये सभी ढीठ चंचल सर चढ़ी सहेलियों  की तरह
मुझे घेर लेती हैं

और मैं चाहकर भी तुम्हारे पासठीक उसी समय
नहीं पहुँच पाती  जब आम्र मंजरियों के नीचे
अपनी बांसुरी में मेरा नाम भरकर तुम बुलाते हो !

उस दिन तुम उस बौर  लादे आम की
झुकी डालियों से टिके कितनी देर मुझे वंशीसे टेरते रहे
ढलते सूरज कि उदास कांपती किरणें
तुम्हारे माथे के मोर पंखों
से बेबस विदा मांगने लगी
मैं नहीं आई

गायें कुछ क्षण तुम्हें अपनी भोली आँखों से
मुंह उठाये देखती रहीं और फिर
धीरे -धीरे नंदगाँव की पगडण्डी पर
बिना तुम्हारे अपने आप मुड़ गयीं
मैं नहीं आई

यमुना के घाट पर
मछुओं ने अपनी नावें बाँध दिन
और कन्धों पर पतवारें रख चले गए
मैं नहीं आई

तुमने बंशी होठों से हटा ली थी
और उदास , मौन, तुम आम्र वृक्ष की जड़ों से टिककर बैठ गए थे
और बैठे रहे, बैठे रहे, बैठे रहे
मैं नहीं आई , नहीं आई, नहीं आई

तुम अंत में उठे
एक झुकी डाल पर खिला एक बौर तुमने तोड़ा
और धीरे- धीरे चल दिए
अनमने तुम्हारे पाँव पगडण्डी पर चल रहे थे
पर जानते हो तुम्हारे अनजाने में ही तुम्हारी अंगुलियाँ क्या कर रहीं थीं ?

वे आम्र मंजरी को चूर- चूर कर
श्यामल वन घासों में बिछी उस मांग सी उजली
पगडण्डी पर बिखेर रही थी...
यह तुमने क्या किये प्रिये !
क्या अपने अनजाने में ही
उस आम के बौर से मेरी क्वांरी उजली पवित्र मांग
भर रहे थे सांवरे ?

पर मुझे देखो कि मैं उस समय भी तो माथा नीचा कर
इस अलौकिक सुहाग से प्रदीप्त होकर
माथे पर पल्ला डालकर
झुककर तुम्हारी चरण धूलि लेकर
तुम्हें प्रणाम करने -
नहीं आई,नहीं आई,नहीं आई !

** पर मेरे प्राण
यह क्यों भूल जाते हो कि मैं वही
बावली लड़की हूँ न जो, कदम्ब के नीचे बैठकर
जब तुम पोई की जंगली लतरों के पके फलों को
तोड़कर, मसलकर, उनकी लाली से मेरे पाँव को
महावर रचने के लिए अपनी गोद में रखते हैं
तो मैं लाज से धनुष कि तरह दोहरी हो जाती हूँ
और अपने पाँव पूरे बल से समेट कर खींच लेती हूँ
अपनी दोनों बाँहों में अपने घुटने कस
मुंह फेरकर निश्छल बैठ जाती हूँ
पर जब शाम को घर आती हूँ तो
निम्रित एकांत में दीपक के मंद आलोक में
अपने उन्हीं चरणों को
अपलक निहारती हूँ
बावली सी उन्हें बार-बार प्यार करती हूँ
जल्दी-जल्दी में अधबनी उन महावर कि रेखाओं को
चरों ओर देखकर धीमे से
चूम लेती हूँ

**
रात गहरा आई है
और तुम चले गए हो
और मैं कितनी देर तक बांह से
उसी आम्र डाली को घेरे चुपचाप रोती रही हूँ
जिस पर टिककर तुम प्रतीक्षा करते रहे

और मैं लौट रही हूँ
हताश, और निष्फल
और ये आम के टूटे बौर के कण-कण
मेरे पाँव में बुरी तरह साल रहे हैं
पर तुम्हें यह कौन बताएगा सांवरे
कि देर ही में सही
मैं तुम्हारे पुकारने पर आ तो गयी
और मांग सी उजली पगडण्डी पर बिखरे
ये मंजरी कण भी अगर मेरे चरणों में गड़ते हैं तो
इसीलिए न कि कितना लम्बा रास्ता
कितनी जल्दी-जल्दी पार कर मुझे आना पड़ा है
और काँटों औत ककरियों से
मेरे पाँव किस बुरी तरह घायल हो गए हैं

यह कैसे बताऊँ तुम्हें
कि चरण साक्षात्कार के ये अनूठे क्षण भी
जो कभी-कभी मेरे हाथ से छूट जाते हैं
तुम्हारी जो मर्म पुकार जो कभी-कभी मैं नहीं सुन पाती
तुम्हारी भेंट का अर्थ जो नहीं समझ पाती
तो मेरे सांवरे लाज मन की भी होती है

एक अज्ञात भय
अपरिचित संशय
आग्रह भरा गोपन
और सुख के क्षण
में भी घिर आने वाली उदासी
फिर भी उसे चीरकर
तो क्या तुम मुझे अपनी लम्बी
चन्दन बाहों में भरकर बेसुध नहीं कर दोगे ?

** यह जो मैं गृहकाज से अलसाकर अक्सर
इधर चली आती हूँ
और कदम्ब कि छांह में शिथिल अस्त व्यस्त
अनमनी सी पड़ी रहती हूँ .....

यह पछतावा अब मुझे हर क्षण
सालता रहता है कि
मैं उस रास की रात तुम्हारे पास से लौट क्यों आई ?
जो चरण तुम्हारे वेणुवादन की लौ पर
तुम्हारे नील जलज तन की परिक्रमा देकर नाचते रहे
वे फिर घर की ओर उठ कैसे पाए
मैं उस दिन लौटी क्यों
कण-कण अपने को तुम्हें देकर रीत क्यों नहीं गयी ?
तुमने तो उस रास की रात
जिसे अंशतः भी आत्मसात किया
उसे सम्पूर्ण बनाकर
वापस अपने अपने घर भेज दिया
पर हाय वह सम्पूर्णता तो
इस जिस्म के एक एक कण में
बराबर टीसती रहती है
तुम्हारे लिए !
कैसे हो जी तुम

जब मैं जाना ही नहीं चाहती
तो बांसुरी के एक गहरे अलाप से
मदोन्मत्त मुझे खींच बुलाते हो
और जब वापस  नहीं आना चाहती
तब मुझे अंशतः ग्रहण कर
सम्पूर्ण बनाकर लौटा देते हो !!

- नमालूम





25.04.99

Sunday, May 18, 2014

तुम्हारा स्पर्श

मैं अधूरी सी थी
तुमसे मिलने से पहले
अपने आप में सिमटी हुयी
किन्तु पाकर तुम्हारा स्पर्श
खिल उठा मेरा रोम-रोम
कली  की मानिंद
झुक सी गयी मेरी नज़र
डूबती गयी मैं हया के समंदर में

मेरे अहसास
हो गए तब्दील
प्यार के रंग में
कंचन सी हो गयी मेरी काया
सोने सा दमक उठा
मेरा शरीर
मन हो गया बेकाबू
तुम्हारे जरा से स्पर्श से

- नमालूम

नाता

मैं एक मूढ़ परीक्षार्थी
तुम उलझी सी प्रश्नावली
मैं टूटा दर्प अभिलाषी का
तुम आस हर प्रत्याशी की

मैं नेता का अनर्गल प्रलाप
तुम प्रभाती का मधुर अलाप
मैं स्याह रातों का कलंक
तुम पूनम का अकलुष मयंक

फिर भी हमारा कुछ नाता है-
बिना मेरे क्या मूल्य तुम्हें मिल पता है

- नमालूम

यातनाएं

मेरे मन में खड़े
तुम्हरी स्मृतियों के
बर्फीले  पहाड़
जब बहते हैं गलकर
नयनों के कोरोंसे, तो
गीली हो जाती हैं
शुष्क पड़ी भावनाएं

जागृत हो उठता है
तेरे स्पर्श का अहसास
दौड़ने लगता है लहू में
तेरे स्वर का स्पंदन
रोम-रोम थिरकने लगता है
धडकनों की तान पर
जेठ भी लगता है मधुमास

फिर अचानक उठता है तूफ़ान
चीखने लगती हैं वासनाएं
छा जाते हैं यौवन के बादल
कौंधने लगती हैं कामनाएं
बरबस मन पहुँच जाता है तेरे पास
पर तू खोयी-खोयी सी बैठी है
एकदम गुमसुम - चुपचाप
घुटनों में अपना सिर छुपाये

चाहा लगा लूँ तुझको सीने से
चूम लूँ तेरे मासूम चेहरे को
किन्तु दूर- दूर तक फैली ख़ामोशी में
मुझे घेर लेते हैं रिश्ते के साए

तार-तार हो जाती हैं श्रंखलायें
यकायक पथरा जाती हैं भावनाएं
शांत हो जाती हैं वासनाएं
दम तोड़ देती है हैं कामनाएं
शून्य में पाता हूँ अपने आपको
और रह जाती हैं शेष
बस यातनाएं

- नमालूम

ग़ज़ल

कितनी उम्मीदें ले के खड़ी है
देख ये दुनिया बहुत बड़ी है

आसमान है खफा -खफा सा
धरती भी उखड़ी - उखड़ी है

यूँ  तो बहुत कुछ हो सकता था
यूँ तोअभी एक उम्र पड़ी है

दुःख की घटा भी छट जाएगी
सोच के चल बारिश कि झड़ी है

ध्यान में लेता चल पेड़ों को
राह कठिन और धूप कड़ी है

-नमालूम

ग़ज़ल

मुद्दतो, अब तो खबर भी नहीं आती उसकी
इस तरह क्या कोई अपनों को भुला देता है

किस तरह बात लिखूं दिल की उसे
वो अक्सर दोस्तों को मेरे ख़त पढ़ के सुना देता है

सामने रख के निगाहों के वो तस्वीर मेरी
अपने कमरे के चिरागों को बुझा देता है

जाने किस बात कि वो मुझको सजा देता है
मेरी हंसती आँखों को वो रुला देता है

मैं भी देखूंगी तुझे मांग कर उससे एक दिन
लोग कहते हैं कि मांगों तो खुदा देता है

- नमालूम


स्मृतियों के बादल

जैसे बादल बनाते हैं आकाश पर
तरह-तरह की आकृतियाँ
मेरे मन के आकाश पर वैसे ही
छायीं हैं तुम्हारी स्मृतियाँ
इनकी छुवन से याद आते हैं मुझे
तुम्हारे साथ गुजारे लम्हे
तुम्हार मुस्कुराना, रूठ जान, खिलखिलाना-

बादल जल भरे - स्मृतियाँ आंसू भरी
दोनों बरसते हैं बनकर सावन
भीगा मन
अंजाने भर आये नयन
तुम बिन मेरा जीवन
जेठ कि कोई दोपहर
तुमसे बिछड़ी मेरी आत्मा
सागर से बिछड़ी कोई लहर

तुम बिन मैं-
किसी पक्षी का टूटा पर
जाने किन-किन यातनाओं से गुज़र जाता हूँ मैं
तैरते हैं जब मेरे मन के आकाश पर
तुम्हारी स्मृतियों के बादल !

- नमालूम

Thursday, May 15, 2014

अगर तुम मिल गयी होती !

रात रात भर जगकर
करवटें बदलना
खामोशियों में तुम्हारी
आवाज़ें सुनना
उस वक़्त
अगर तुम मिल गयी होती
तो आज
सन्नाटों से बातें
कौन करता ?

बदन से खून निकालकर
तुम्हें प्रेम पत्र लिखना
लिखकर फाड़ देना
ये सोचकर कि शायद
कुछ कहना बाकी है
उस वक़्त
अगर तुम मिल गयी होती
तो आज
कविताएँ कौन लिखता ?

तुम्हारी मीठी बातें सुनकर
हँसता चेहरा देखकर
सपने में मुस्कुराना
उस वक़्त
अगर तुम मिल गयी होती
तो आज
तकिये में मुंह छिपाकर
कौन सिसकता ?

संजोये था
कुछ बावली तमन्नाएँ
तोड़ कर तारे टांक दूँ तेरे पल्लू में
माथे पर तेरे चाँद कि सजा दूँ बिंदिया
चुटकी में समेटकर इन्द्रधनुष के रंग
बिखेर दूँ तेरी मांग में
अगर ये सब सचमुच हो गया होता
तो आज
तन्हाई से शादी कौन करता ?

- नमालूम

अहसास

तुम्हारे ह्रदय में
जो प्रेम का
संगम है
उसमें , सरस्वती कि तरह
अदृश्य हूँ मैं
लोगों को हो
या, न हो
पर
तुम्हें, तो
अहसास है न !!

- नमालूम

अनुभूति

अक्सर अनुभूतियों के क्षणों में
जब मैं तुम्हारे ख़त पढता हूँ
तो उसमें मुझे अक्षर नहीं
तुम्हारा ही अक्स नज़र आता है

मात्राएँ, तुम्हारी भौहें
वर्ण, तुम्हारे नेत्र
विराम, तुम्हारी नासिका
और रेखाएं तुम्हारी मुस्कान में
तब्दील होने लगती हैं

इन अलभ्य क्षणों में
आहिस्ता- आहिस्ता
तुम्हारा चेहरा  मेरे चेहरे पर
तुम्हारी भौहें मेरी भौहों पर
तुम्हारे नेत्र मेरे नेत्रों पर
तुम्हारी नासिका मेरी नासिका पर
और तुम्हारी मुस्कान मेरे अधरों पर
चस्पा हो जाती है
तुम्हार समूचा व्यक्तित्व पिघलकर
मेरी धमनियों में दौड़ने लगता है
मेरा ह्रदय तुम्हारी साँसों से
स्पंदित होने लगता है कि
मैं 'मैं' नहीं
'तुम' हूँ.

- नमालूम



संवारती हूँ तुमको

संवारती हूँ तुमको छटक जाते हो मेरे हाथों से
लेते हो परीक्षा धैर्य और साहस कि
बुद्धि और विवेक के छेनी और हथौड़ों से
छीन-छीन कर गढ़ती हूँ तुम्हारी प्रतिमा को
बड़े ही नाजुक हो तुम थोड़े में ही रूठ जाते हो

अदम्य साहस मुझमें है, तुममें साहस भर दूँ
प्यार से सहलाती हूँ तो तुम कमजोर समझते हो
भूल जाते हो, तुम्हारा अनघढ़पन ही मेरी कमजोरी है
तुम्हारा सौन्दर्य, तुम्हारा शिव, तुम्हारा परिष्कार मेरी सफलता है
क्योंकि तुम मेरे जीवन कि अगली कड़ी हो

- डॉ. किरण 'मराली'

हम खुद को भूल जायेंगे

रस्म मुहब्बत कि हम इस तरह निभाएंगे
तुझे याद करके हम खुद को भूल जायेंगे
बात वो मतलब कि खुद वो समझ लेंगे
हम कहाँ -कहाँ उनको आईना दिखायेंगे

रोटियां मुश्किल हैं जिन गरीब लोगों को
डोलियाँ वो बेटी कि किस तरह सजायेंगे
या ख़ुदा गरीबों को बेटियां न तुम देना
वरना पैसे वाले फिर इक बहू जलाएंगे

- वैभव वर्मा

जाने क्या हुआ इस ज़माने को

जाने क्या हुआ इस जमाने को
हक़ भी नहीं देता हाले-दिल सुनाने को
हर तरफ तन्हाई है, फिर भी कहता है मुस्कराने को

इन आंसुओं को अपना मुकद्दर बना लिया
तन्हाईयों के शहर में इक घर बना लिया
सुनते हैं पत्थरों को यहाँ पूजते हैं लोग
इस वास्ते दिल को पत्थर बना लिया

- नमालूम

अकेले बढ़ो तुम

न हो साथ कोई अकेले बढ़ो तुम
सफलता तुम्हारे क़दम चूम लेगी
सदा जो जगाये बिना ही जगा है
अँधेरे उसे देखकर ही भगा है

वह बीज पनपा पनपना जिसे था
घुन क्या किसी के उगाये उगा है
अगर उग सको तो उगो सूर्य से तुम
प्रखरता तुम्हारे चरण चूम लेगी

सही राह को छोड़ कर जो मुड़े हैं
वही देखकर दूसरों को कुढ़े हैं
बिना पंख तौले उड़े जो गगन में
न सम्बन्ध उनके गगन से जुड़े हैं

अगर बन सको तो पखेरू बनो तुम
प्रखरता तुम्हारे क़दम चूम लेगी
न जो वर्फ कि आँधियों से लड़ हैं
कभी पग न उनके शिखर पे पड़े हैं

जिन्हें लक्ष्य से कम, अधिक प्यार खुद से
वही जी चुराकर तरसते खड़े हैं

अगर जी सको तो जियो झूम कर तुम
अमरता तुम्हारे क़दम चूम लेगी
न हो साथ कोई अकेले बढ़ो तुम
सफलता तुम्हारे  क़दम चूम लेगी. ..
24.04.99

ऐ मेरे वतन के लोगो ......

ऐ मेरे वतन के लोगो जरा आँख में भर लो पानी
जो शहीद हुए हैं उनकी जरा याद करो कुर्बानी
जब घायल हुआ हिमालय खतरे में पड़ी आजादी
जब तक थी सांस  लड़ वो फिर अपनी लाश बिछा दी

हो गए वतन पर निछावर वो वीर थे कितने गुमानी

जब देश में थी दीवाली वो खेल रहे थे  होली
जब हम बैठे थे घरों में वो झेल रहे थे गोली
थे धन्य जवान वो अपने, थी धन्य वो उनकी जवानी

शेरोन कि तरह झपटे थे भारत के बहादुर बेटे
इस मुल्क की लाज बचा के मर गए वर्फ पे लेटे
संगीन पर माथा धरकर, सो गए वीर बलिदानी

कोई सिख कोई जाट मराठा, कोई गोरखा कोई मद्रासी
सरहद पर मरने वाला हर वीर था भारतवासी
जो खून गिरा पर्वत पर वह खून था हिन्दोस्तानी

चल तू अपनी राह पथिक

चल तू अपनी राह पथिक, तुझको विजय पराजय से क्या
होने दे होता है जो कुछ, उस होने का हो निर्णय  क्या
भंवर उठ रहे हैं सागर में, मेघ उमड़ते हैं अम्बर में
आंधी और तूफ़ान डगर में
तुझको तो केवल चलना है, चलना ही है तो फिर भय क्या

अरे थक गया क्यों बढ़ता चल, उठ संघर्षों से लड़ता चल
जीवन विषम पंथ चलता चल
अड़ा हिमालय हो यदि आगे , चढ़ूँ कि लौटूं यह संशय क्या

होने दे होता है जो कुछ, उस होने का हो निर्णय क्या

24.04.99

सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तान हमारा

सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा
हम बुलबुले हैं इसके ये गुलसितां हमारा

पर्वत हैं इसके ऊंचे, प्यारी हैं इसकी नदियाँ
आगोश में इसी के गुजरी हजारों सदियाँ
हँसता है बिजलियों पर ये आशियाँ हमारा

वीरान कर दिया था आंधी ने इस चमन को
देकर लहू बचाया गांधी ने इस चमन को

रक्षा करेगा इसकी हर नौजवां हमारा

- इक़बाल

भाग्य से सौदा



बहुत वर्ष हुए हमने भाग्य से एक सौदा किया था, और अब अपनी प्रतिज्ञा पूरी करने का समय आया है- पूरी तौर पर या जितनी चाहिये उतनी तो नहीं, फिर भी काफी हद तक. जब आधी रात के घंटे बजेंगे जबकि सारी दुनिया सोती होगी, उस समय भारत जगकर जीवन और स्वतंत्रता प्राप्त करेगा. एक ऐसा क्षण आता है जो कि  इतिहास में कम ही आता है, जबकि हम पुराने को छोड़कर नए जीवन में पग धरते हैं जबकि एक युग का नत होता है , जबकि राष्ट्र की चिर दलित आत्मा उद्धार प्राप्त करती है. यह उचित है कि इस गंभीर क्षण में हम भारत और उसके लोगों और उससे भी बढ़कर मानवता के हित के लिए सेवा अर्पण करने कि शपथ लें.

  इतिहास के ऊषाकाल में भारत ने अपनी अनंत खोज आरम्भ की दुर्गम सदियाँ, उसके उद्योग, उसकी विशाल सफलता और उसकी असफलताओं से भरी मिलेंगी. चाहे अच्छे दिन आये हों , चाहे बुरे उसने इस खोज को आँखों से ओझल नहीं होने दिया. न उन आदर्शों को ही भुलाया जिनसे उसे शक्ति प्राप्त हुयी. आज हम दुर्भाग्य कि एक अवधि पूरी करते हैं और भारत अपने आपको फिर पहचानता है. जिस कीर्ति पर हम आज आनंद मना रहे हैं, वह और भी बड़ी कीर्ति और आने वाले विजयों कि की दिशा में एक पग है और आगे को अवसर देने वाली है. इस अवसर को ग्रहण करने और भविष्य कि चुनौती स्वीकार करने के लिए क्या हममें काफी साहस और काफी बुद्धि है?

स्वतंत्रता और शक्ति जिम्मेदारी लाती है. वह जिम्मेदारी इस सभा पर है जो कि भारत के सम्पूर्ण सत्ताधारी लोगों का प्रतिनिधित्व करने वाली सम्पूर्ण सत्ताधारी सभा है. स्वतंत्रता के जन्म से पहले हमने प्रसव कि सारी पीड़ाएं सहन की हैं और हमारे ह्रदय इस दुःख कि स्मृति से भरे हुए हैं. इनमें से कुछ पीड़ाएं अब भी चल रही हैं. फिर भी अतीत समाप्त हो चूका है और भविष्य ही हमारा आह्वान कर रहा है.

यह भविष्य आराम करने और दम लेने के लिए नहीं है बल्कि निरंतर प्रयत्न करने के लिए है. जिससे कि हम उन प्रतिज्ञाओं को जो हमने इतनी बार कि हैं और उसे जो आज कर रहे हैं , पूरा कर सकें . भारत की सेवा का अर्थ करोड़ों पीड़ितों कि सेवा है. इसका अर्थ दरिद्रता और अज्ञान और अवसर कि विषमता का अंत करना है.

 हमारी पीढ़ी कि सबसे बड़े आदमी कि यह आकांक्षा रही है कि प्रत्येक आँख के प्रत्येक आंसू को पोंछ दिया जाए. ऐसा करना हमारी शक्ति से बाहर हो सकता है, लेकिन जब तक आंसू और पीड़ा है तब तक हमारा काम पूरा नहीं होगा.

इसलिए हमें काम करना है और परिश्रम करना है और कठिन परिश्रम करना है जिससे कि हमारे स्वप्न पूरे हों . ये स्वप्न भारत के लिए हैं, क्योंकि आज सभी राष्ट्र और लोग आपस में एक दुसरे से गुंथे हुए हैं कि कोई भी बिल्कुल अलग होकर रहने कि कल्पना नहीं कर सकता

---- नई दिल्ली में स्वतंत्रता प्राप्ति की पूर्व संध्या पर 14 अगस्त 1947 को श्री जवाहर लाल नेहरु द्वारा दिया गया भाषण 

23.04.99

इतनी शक्ति हमें दे न दाता

इतनी शक्ति हमें दे न दाता, मन का विश्वास कमजोर हो न
हम चलें नेक रस्ते पर हमसे भूल कर भी भूल हो न

दूर अज्ञान के हों अँधेरे, तू हमें ज्ञान कि रौशनी दे
हर बुराई से बचते रहें हम, जितनी भी दे भली ज़िन्दगी दे
बैर हो न किसी का किसी से, भावना मन में बदले कि हो न

हम न सोचें हमें क्या मिला है, हम ये सोचें किया क्या है अर्पण
फूल खुशियों के बाँटें सभी को, सबका जीवन भी बन जाए मधुवन
अपनी करुणा का जल बहा के ,करदे पावन हरेक मन का कोना

24.04.99

Wednesday, May 14, 2014

Song

'Love is two heart with one song'

पत्थर

' पत्थर कि जो चट्टान कमजोर व्यक्तियों कि राह का रोड़ा बनती है वह शक्तिशाली लोगों के लिए सफलता कि सीढ़ी बन जाती है'
- कारलायल 

मेहनत

'मेहनत सफलता कि वह कुंजी है जो किस्मत के दरवाजे खोल देती है '

रिश्ते

' यूँ तो रिश्तों के कुछ न कुछ नाम होते हैं चाहे जितना गहरा रिश्ता हो पर टूटने का भय बना रहता है हमेशा .

कुछ रिश्ते ऐसे भी होते हैं जिनका कोई नाम नहीं होता और जब नाम ही नहीं होता तो टूटने का भय ही क्या '

नीरस जीवन

मन को इतना मत मारो, कि जीवन नीरस लगने लगे तथा दूसरों की भावनाओं को समझने की शक्ति खो दो

आदर्श जीवन

व्यक्ति कि पहचान कर्म है, इसलिए उसे वही करना चाहिये  जैसी वह पहचान चाहता है. तुम्हें किस बात का अफ़सोस है तुमने तो हमेशा लोगों कि भलाई कि है, तुम्हें क्या खोने का दुःख है तुम्हें तो सिर्फ आदर्श जीवन चाहिए जो तुम्हारे पास है. तुम्हें कौन मिटा सकेगा, तुम्हारे पास साहस है उठ खड़े होने का ...

swami vivekanand

' Recognize yourself and believe that you are the most important person in the world'

- swami vivekanand

जीवन

जीना भी एक कला है
कला ही नहीं वरण तपस्या है

जीते तो सभी हैं पर निरुद्देश्य जीवन, जीवन नहीं

दुनिया

'उजड़ना सीख दुनिया से ,
 अगर सर सब्ज होना है '

Ajnabi

Love is that feeling which can not express to ........

- 'Ajnabi'

सर्वोत्तम शास्त्र

' कारण परिस्तिथियों का विश्लेषण एवं दुरुस्त करने का उपाय ही सर्वोत्तम शास्त्र है'

Rigveda

'.... Let good thoughts come from each sides'

- Rigveda

क्या लिखूं?

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10.01.99