Thursday, May 15, 2014

अनुभूति

अक्सर अनुभूतियों के क्षणों में
जब मैं तुम्हारे ख़त पढता हूँ
तो उसमें मुझे अक्षर नहीं
तुम्हारा ही अक्स नज़र आता है

मात्राएँ, तुम्हारी भौहें
वर्ण, तुम्हारे नेत्र
विराम, तुम्हारी नासिका
और रेखाएं तुम्हारी मुस्कान में
तब्दील होने लगती हैं

इन अलभ्य क्षणों में
आहिस्ता- आहिस्ता
तुम्हारा चेहरा  मेरे चेहरे पर
तुम्हारी भौहें मेरी भौहों पर
तुम्हारे नेत्र मेरे नेत्रों पर
तुम्हारी नासिका मेरी नासिका पर
और तुम्हारी मुस्कान मेरे अधरों पर
चस्पा हो जाती है
तुम्हार समूचा व्यक्तित्व पिघलकर
मेरी धमनियों में दौड़ने लगता है
मेरा ह्रदय तुम्हारी साँसों से
स्पंदित होने लगता है कि
मैं 'मैं' नहीं
'तुम' हूँ.

- नमालूम