Monday, May 19, 2014

मेरे स्वर्णिम संगीत

यह जो अकस्मात
आज मेरे जिस्म के सितार के
एक-एक तार में झंकार उठे हो
सच बतलाना मेरे स्वर्णिम संगीत
तुम कब से मुझमें छिपे सो रहे थे
सुनो, मैं अक्सर अपने शारीर को
पोर-पोर को अवगुंठन में ढककर तुम्हारे सामने गयी
मुझे तुमसे कितनी लाज आती थी
मैंने अक्सर अपनी हथेलियों में
अपना लाज से आरक्त मुंह छिपा लिया है
मुझे तुमसे कितनी लाज आती थी
मैं अक्सर तुमसे केवल तम के प्रगाढ़ परदे में मिली
जहाँ हाथ को हाथ नहीं सूझता था
मुझे तुमसे कितनी लाज आती थी

पर हाय मुझे क्या मालूम था
कि इस बेला जब अपने को
अपने से छिपाने के लिए मेरे पास
कोई आवरण नहीं रहा
तुम मेरे जिस्म के एक से झंकार उठोगे

सुनो! सच बतलाना मेरे स्वर्णिम संगीत

इस क्षण की प्रतीक्षा में तुम
कब से मुझमें छिपे सो रहे थे
यह जो दोपहर के सन्नाटे में
यमुना के निर्जन घाट परअपने सारे वस्त्र
किनारे रख
 मैं घंटों जल में निहारती हूँ
क्या तुम समझते कि मैं
इस भांति अपने को देखती हूँ
नहीं मेरे सांवरे !

यमुना के नीले जल में
मेरा यह बेबस लता सा कांपता तन बिम्ब
और उसके चरों ओर सांवली गहराई का अथाह प्रसार
जानते हो कैसा लगता है ?

मानो यह यमुना की सांवली गहरी नहीं है
यह तुम हो जो सरे आवरण दूर कर
मुझे चारों ओर से कण-कण रोम-रोम
अपने श्यामल प्रगाढ़
अथाह आलिंगन में पोर-पोर कसे हुए हो !

यह क्या तुम समझते हो
घंटों जल में - मैं अपने को निहारती हूँ
नहीं मेरे सांवरे !!

- नमालूम