यह जो मैं कभी- कभी चरम के साक्षात्कार के क्षणों में बिलकुल जड़ और निस्पंद हो जाती हूँ
इसका मर्म तुम समझते क्यूँ नहीं सांवरे !
तुम्हारी जन्म-जन्मान्तर की रहस्मयी लीला की एकान्त संगिनी मैं
इन क्षणों में अक्स्मात
तुमसे पृथक नहीं हो जाती मेरे प्राण
तुम यह क्यों नहीं समझ पाते कि लाज
सिर्फ जिस्म की नहीं होती
मन की भी होती है
एक मधुर भय
एक अंनजाना संशय
एक आग्रह भरा गोपन
एक नि:स्वार्थ वेदना , उदासी
जो मुझे बार-बार चरम सुख के क्षणों में भी अभिभूत कर लेती है
भय, संशय,गोपन, उदासी
ये सभी ढीठ चंचल सर चढ़ी सहेलियों की तरह
मुझे घेर लेती हैं
और मैं चाहकर भी तुम्हारे पासठीक उसी समय
नहीं पहुँच पाती जब आम्र मंजरियों के नीचे
अपनी बांसुरी में मेरा नाम भरकर तुम बुलाते हो !
उस दिन तुम उस बौर लादे आम की
झुकी डालियों से टिके कितनी देर मुझे वंशीसे टेरते रहे
ढलते सूरज कि उदास कांपती किरणें
तुम्हारे माथे के मोर पंखों
से बेबस विदा मांगने लगी
मैं नहीं आई
गायें कुछ क्षण तुम्हें अपनी भोली आँखों से
मुंह उठाये देखती रहीं और फिर
धीरे -धीरे नंदगाँव की पगडण्डी पर
बिना तुम्हारे अपने आप मुड़ गयीं
मैं नहीं आई
यमुना के घाट पर
मछुओं ने अपनी नावें बाँध दिन
और कन्धों पर पतवारें रख चले गए
मैं नहीं आई
तुमने बंशी होठों से हटा ली थी
और उदास , मौन, तुम आम्र वृक्ष की जड़ों से टिककर बैठ गए थे
और बैठे रहे, बैठे रहे, बैठे रहे
मैं नहीं आई , नहीं आई, नहीं आई
तुम अंत में उठे
एक झुकी डाल पर खिला एक बौर तुमने तोड़ा
और धीरे- धीरे चल दिए
अनमने तुम्हारे पाँव पगडण्डी पर चल रहे थे
पर जानते हो तुम्हारे अनजाने में ही तुम्हारी अंगुलियाँ क्या कर रहीं थीं ?
वे आम्र मंजरी को चूर- चूर कर
श्यामल वन घासों में बिछी उस मांग सी उजली
पगडण्डी पर बिखेर रही थी...
यह तुमने क्या किये प्रिये !
क्या अपने अनजाने में ही
उस आम के बौर से मेरी क्वांरी उजली पवित्र मांग
भर रहे थे सांवरे ?
पर मुझे देखो कि मैं उस समय भी तो माथा नीचा कर
इस अलौकिक सुहाग से प्रदीप्त होकर
माथे पर पल्ला डालकर
झुककर तुम्हारी चरण धूलि लेकर
तुम्हें प्रणाम करने -
नहीं आई,नहीं आई,नहीं आई !
** पर मेरे प्राण
यह क्यों भूल जाते हो कि मैं वही
बावली लड़की हूँ न जो, कदम्ब के नीचे बैठकर
जब तुम पोई की जंगली लतरों के पके फलों को
तोड़कर, मसलकर, उनकी लाली से मेरे पाँव को
महावर रचने के लिए अपनी गोद में रखते हैं
तो मैं लाज से धनुष कि तरह दोहरी हो जाती हूँ
और अपने पाँव पूरे बल से समेट कर खींच लेती हूँ
अपनी दोनों बाँहों में अपने घुटने कस
मुंह फेरकर निश्छल बैठ जाती हूँ
पर जब शाम को घर आती हूँ तो
निम्रित एकांत में दीपक के मंद आलोक में
अपने उन्हीं चरणों को
अपलक निहारती हूँ
बावली सी उन्हें बार-बार प्यार करती हूँ
जल्दी-जल्दी में अधबनी उन महावर कि रेखाओं को
चरों ओर देखकर धीमे से
चूम लेती हूँ
**
रात गहरा आई है
और तुम चले गए हो
और मैं कितनी देर तक बांह से
उसी आम्र डाली को घेरे चुपचाप रोती रही हूँ
जिस पर टिककर तुम प्रतीक्षा करते रहे
और मैं लौट रही हूँ
हताश, और निष्फल
और ये आम के टूटे बौर के कण-कण
मेरे पाँव में बुरी तरह साल रहे हैं
पर तुम्हें यह कौन बताएगा सांवरे
कि देर ही में सही
मैं तुम्हारे पुकारने पर आ तो गयी
और मांग सी उजली पगडण्डी पर बिखरे
ये मंजरी कण भी अगर मेरे चरणों में गड़ते हैं तो
इसीलिए न कि कितना लम्बा रास्ता
कितनी जल्दी-जल्दी पार कर मुझे आना पड़ा है
और काँटों औत ककरियों से
मेरे पाँव किस बुरी तरह घायल हो गए हैं
यह कैसे बताऊँ तुम्हें
कि चरण साक्षात्कार के ये अनूठे क्षण भी
जो कभी-कभी मेरे हाथ से छूट जाते हैं
तुम्हारी जो मर्म पुकार जो कभी-कभी मैं नहीं सुन पाती
तुम्हारी भेंट का अर्थ जो नहीं समझ पाती
तो मेरे सांवरे लाज मन की भी होती है
एक अज्ञात भय
अपरिचित संशय
आग्रह भरा गोपन
और सुख के क्षण
में भी घिर आने वाली उदासी
फिर भी उसे चीरकर
तो क्या तुम मुझे अपनी लम्बी
चन्दन बाहों में भरकर बेसुध नहीं कर दोगे ?
** यह जो मैं गृहकाज से अलसाकर अक्सर
इधर चली आती हूँ
और कदम्ब कि छांह में शिथिल अस्त व्यस्त
अनमनी सी पड़ी रहती हूँ .....
यह पछतावा अब मुझे हर क्षण
सालता रहता है कि
मैं उस रास की रात तुम्हारे पास से लौट क्यों आई ?
जो चरण तुम्हारे वेणुवादन की लौ पर
तुम्हारे नील जलज तन की परिक्रमा देकर नाचते रहे
वे फिर घर की ओर उठ कैसे पाए
मैं उस दिन लौटी क्यों
कण-कण अपने को तुम्हें देकर रीत क्यों नहीं गयी ?
तुमने तो उस रास की रात
जिसे अंशतः भी आत्मसात किया
उसे सम्पूर्ण बनाकर
वापस अपने अपने घर भेज दिया
पर हाय वह सम्पूर्णता तो
इस जिस्म के एक एक कण में
बराबर टीसती रहती है
तुम्हारे लिए !
कैसे हो जी तुम
जब मैं जाना ही नहीं चाहती
तो बांसुरी के एक गहरे अलाप से
मदोन्मत्त मुझे खींच बुलाते हो
और जब वापस नहीं आना चाहती
तब मुझे अंशतः ग्रहण कर
सम्पूर्ण बनाकर लौटा देते हो !!
- नमालूम
25.04.99
इसका मर्म तुम समझते क्यूँ नहीं सांवरे !
तुम्हारी जन्म-जन्मान्तर की रहस्मयी लीला की एकान्त संगिनी मैं
इन क्षणों में अक्स्मात
तुमसे पृथक नहीं हो जाती मेरे प्राण
तुम यह क्यों नहीं समझ पाते कि लाज
सिर्फ जिस्म की नहीं होती
मन की भी होती है
एक मधुर भय
एक अंनजाना संशय
एक आग्रह भरा गोपन
एक नि:स्वार्थ वेदना , उदासी
जो मुझे बार-बार चरम सुख के क्षणों में भी अभिभूत कर लेती है
भय, संशय,गोपन, उदासी
ये सभी ढीठ चंचल सर चढ़ी सहेलियों की तरह
मुझे घेर लेती हैं
और मैं चाहकर भी तुम्हारे पासठीक उसी समय
नहीं पहुँच पाती जब आम्र मंजरियों के नीचे
अपनी बांसुरी में मेरा नाम भरकर तुम बुलाते हो !
उस दिन तुम उस बौर लादे आम की
झुकी डालियों से टिके कितनी देर मुझे वंशीसे टेरते रहे
ढलते सूरज कि उदास कांपती किरणें
तुम्हारे माथे के मोर पंखों
से बेबस विदा मांगने लगी
मैं नहीं आई
गायें कुछ क्षण तुम्हें अपनी भोली आँखों से
मुंह उठाये देखती रहीं और फिर
धीरे -धीरे नंदगाँव की पगडण्डी पर
बिना तुम्हारे अपने आप मुड़ गयीं
मैं नहीं आई
यमुना के घाट पर
मछुओं ने अपनी नावें बाँध दिन
और कन्धों पर पतवारें रख चले गए
मैं नहीं आई
तुमने बंशी होठों से हटा ली थी
और उदास , मौन, तुम आम्र वृक्ष की जड़ों से टिककर बैठ गए थे
और बैठे रहे, बैठे रहे, बैठे रहे
मैं नहीं आई , नहीं आई, नहीं आई
तुम अंत में उठे
एक झुकी डाल पर खिला एक बौर तुमने तोड़ा
और धीरे- धीरे चल दिए
अनमने तुम्हारे पाँव पगडण्डी पर चल रहे थे
पर जानते हो तुम्हारे अनजाने में ही तुम्हारी अंगुलियाँ क्या कर रहीं थीं ?
वे आम्र मंजरी को चूर- चूर कर
श्यामल वन घासों में बिछी उस मांग सी उजली
पगडण्डी पर बिखेर रही थी...
यह तुमने क्या किये प्रिये !
क्या अपने अनजाने में ही
उस आम के बौर से मेरी क्वांरी उजली पवित्र मांग
भर रहे थे सांवरे ?
पर मुझे देखो कि मैं उस समय भी तो माथा नीचा कर
इस अलौकिक सुहाग से प्रदीप्त होकर
माथे पर पल्ला डालकर
झुककर तुम्हारी चरण धूलि लेकर
तुम्हें प्रणाम करने -
नहीं आई,नहीं आई,नहीं आई !
** पर मेरे प्राण
यह क्यों भूल जाते हो कि मैं वही
बावली लड़की हूँ न जो, कदम्ब के नीचे बैठकर
जब तुम पोई की जंगली लतरों के पके फलों को
तोड़कर, मसलकर, उनकी लाली से मेरे पाँव को
महावर रचने के लिए अपनी गोद में रखते हैं
तो मैं लाज से धनुष कि तरह दोहरी हो जाती हूँ
और अपने पाँव पूरे बल से समेट कर खींच लेती हूँ
अपनी दोनों बाँहों में अपने घुटने कस
मुंह फेरकर निश्छल बैठ जाती हूँ
पर जब शाम को घर आती हूँ तो
निम्रित एकांत में दीपक के मंद आलोक में
अपने उन्हीं चरणों को
अपलक निहारती हूँ
बावली सी उन्हें बार-बार प्यार करती हूँ
जल्दी-जल्दी में अधबनी उन महावर कि रेखाओं को
चरों ओर देखकर धीमे से
चूम लेती हूँ
**
रात गहरा आई है
और तुम चले गए हो
और मैं कितनी देर तक बांह से
उसी आम्र डाली को घेरे चुपचाप रोती रही हूँ
जिस पर टिककर तुम प्रतीक्षा करते रहे
और मैं लौट रही हूँ
हताश, और निष्फल
और ये आम के टूटे बौर के कण-कण
मेरे पाँव में बुरी तरह साल रहे हैं
पर तुम्हें यह कौन बताएगा सांवरे
कि देर ही में सही
मैं तुम्हारे पुकारने पर आ तो गयी
और मांग सी उजली पगडण्डी पर बिखरे
ये मंजरी कण भी अगर मेरे चरणों में गड़ते हैं तो
इसीलिए न कि कितना लम्बा रास्ता
कितनी जल्दी-जल्दी पार कर मुझे आना पड़ा है
और काँटों औत ककरियों से
मेरे पाँव किस बुरी तरह घायल हो गए हैं
यह कैसे बताऊँ तुम्हें
कि चरण साक्षात्कार के ये अनूठे क्षण भी
जो कभी-कभी मेरे हाथ से छूट जाते हैं
तुम्हारी जो मर्म पुकार जो कभी-कभी मैं नहीं सुन पाती
तुम्हारी भेंट का अर्थ जो नहीं समझ पाती
तो मेरे सांवरे लाज मन की भी होती है
एक अज्ञात भय
अपरिचित संशय
आग्रह भरा गोपन
और सुख के क्षण
में भी घिर आने वाली उदासी
फिर भी उसे चीरकर
तो क्या तुम मुझे अपनी लम्बी
चन्दन बाहों में भरकर बेसुध नहीं कर दोगे ?
** यह जो मैं गृहकाज से अलसाकर अक्सर
इधर चली आती हूँ
और कदम्ब कि छांह में शिथिल अस्त व्यस्त
अनमनी सी पड़ी रहती हूँ .....
यह पछतावा अब मुझे हर क्षण
सालता रहता है कि
मैं उस रास की रात तुम्हारे पास से लौट क्यों आई ?
जो चरण तुम्हारे वेणुवादन की लौ पर
तुम्हारे नील जलज तन की परिक्रमा देकर नाचते रहे
वे फिर घर की ओर उठ कैसे पाए
मैं उस दिन लौटी क्यों
कण-कण अपने को तुम्हें देकर रीत क्यों नहीं गयी ?
तुमने तो उस रास की रात
जिसे अंशतः भी आत्मसात किया
उसे सम्पूर्ण बनाकर
वापस अपने अपने घर भेज दिया
पर हाय वह सम्पूर्णता तो
इस जिस्म के एक एक कण में
बराबर टीसती रहती है
तुम्हारे लिए !
कैसे हो जी तुम
जब मैं जाना ही नहीं चाहती
तो बांसुरी के एक गहरे अलाप से
मदोन्मत्त मुझे खींच बुलाते हो
और जब वापस नहीं आना चाहती
तब मुझे अंशतः ग्रहण कर
सम्पूर्ण बनाकर लौटा देते हो !!
- नमालूम
25.04.99