अच्छा मेरे महान कनु
मान लो कि क्षण भर को
मैं यह स्वीकार लूँ
कि मेरे ये सारे तन्मयता के गहरे क्षण
सिर्फ भावावेश थे
सुकोमल कल्पनाएँ थीं
रंगे हुए, अर्थहीन आकर्षक शब्द थे
मान लो कि
क्षण भर को
मैं यह स्वीकार लूँ
कि
पाप, पुन्य, धर्म अधर्म न्याय दंड
क्षमाशील वाला यह तुम्हार युद्ध सत्य है-
तो भी मैं क्या करूँ कनु
मैं तो वही हूँ
तुम्हारी बावरी मित्र
जिसे सदा उतना ही ज्ञान मिला
जितना तुमने उसे दिया
जितना तुमने मुझे दिया अभी तक
उसे पूरा समेटकर भी
आसपास जाने कितना है तुम्हारे इतिहास का
जिसका कुछ अर्थ मुझे समझ में नहीं आता है .
अपनी जमुना में
जहाँ घंटों अपने को निहारा करती थी मैं
वहां अब शस्त्रों से लदी हुयी
अगणित नौकाओं की पंक्ति रोज-रोज कहाँ जाती है?
धारा में बह-बह कर आते हुए टूटे रथ
जर्जर पताकाएं किसकी हैं ?
हारी हुयी सेनाएं, जीती हुयी सेनाएं
नभ को कांपते हुए,युद्ध घोष क्रंदन स्वर
भागे हुए सैनिकों से सुनी हुयी
अकल्पनीय अमानुषिक घटनाएं युद्ध की
क्या ये सब सार्थक हैं ?
चरों दिशाओं से
उत्तर को उड़ -उड़ कर जाते हुए
गिद्धों को क्या तुम बुलाते हो
( जैसेबुलाते हो भटकी गायों को )
जितनी समझ तुमसे पाई है अब तक कनु
उतनी बटोरकर भी
कितना कुछ है जिसका
कोई भी अर्थ मुझे समझ नहीं आता है
अर्जुन की तरह कभी
मुझे भी समझा दो
सार्थकता है क्या बंधु ?
मान लो तन्मयता के गहरे क्षण
रंगे हुए अर्थहीन , आकर्षक शब्द थे
तो सार्थक फिर क्या है कनु ?
पर इस सार्थकता को तुम मुझे
कैसे समझोगे कनु ?
शब्द, शब्द, शब्द......
मेरे लिए सब अर्थहीन हैं
यदि वे मेरे पास बैठकर
मेरे रूखे कुन्तलों में उँगलियाँ उलझाये हुए
तुम्हारे कांपते अधरों से नहीं निकलते
शब्द, शब्द, शब्द ...
कर्म, स्वधर्म, निर्णय, दायित्व ....
मैंने भी गली- गली सुने हैं ये शब्द
अर्जुन ने इनमें चाहे कुछ भी पाया हो
मैं इन्हें सुनकर कुछ नहीं पाती प्रिय
सिर्फ राह में ठिठककर
तुम्हारे उन अधरों कि कल्पना करती हूँ
जिनसे तुमने ये शब्द पहली बार कहे होंगे
तुम्हारा सांवला लहराता हुआ जिस्म
तुम्हारी किंचित मुड़ी हुई शंखग्रीवा
तुम्हारी उठी हुई चन्दन बाहें
तुम्हरी अपने में डूबी हुई
अधर्खुली दृष्टि
धीरे -धीरे हिलते हुए
तुम्हारे जादू भरे होंठ !
मैं कल्पना करती हूँ कि
अर्जुन की तरह मैं हूँ
और मेरे मन में मोह उत्पन्न हो गया है
और मैं नहीं जानती कि युद्ध मौन सा है
और मैं किसके पक्ष में हूँ
और समस्या क्या है
और लड़ाई किस बात की है
लेकिन मेरे मन में मोह उत्पन्न हो गया है
क्योंकि तुम्हारे द्वारा समझाया जाना
मुझे बहुत अच्छा लगता है
और सेनायें स्तब्ध खड़ी हैं
और इतिहास स्थगित हो गया है
और तुम मुझे समझा रहे हो ..............
कर्म, स्वधर्म, निर्णय, दायित्व
शब्द,शब्द, शब्द.......
मेरे लिए नितांत अर्थहीन हैं
मैं इन सबके परे अपलक तुम्हें देख रही हूँ
हर शब्द को अंजुरी बनाकर
बून-बूँद तुम्हें पी रही हूँ
और तुम्हारा तेज
मेरे जिस्म के एक-एक मूर्छित संवेदन को
धधका रहा है
और तुम्हारे जादू भरे होठों से
रजनी गंध के फूलों कि तरह ताप-ताप शब्द झर रहे हैं
एक के बाद एक के बाद एक
कर्म, स्वधर्म , निर्णय, दायित्व
मुझ तक आते-आते सब बदल गए हैं
मुझे सुना पड़ता है केवल
राधन, राधन, राधन
शब्द,शब्द, शब्द.......
तुम्हारे शब्द अगणित हैं कनु- संख्यातीत
पर उनका अर्थ मात्र एक है
मैं
मैं
केवल मैं !
फिर उन शब्दों से
मुझी को
इतिहास कैसे समझोगे कनु ?
- नमालूम
मान लो कि क्षण भर को
मैं यह स्वीकार लूँ
कि मेरे ये सारे तन्मयता के गहरे क्षण
सिर्फ भावावेश थे
सुकोमल कल्पनाएँ थीं
रंगे हुए, अर्थहीन आकर्षक शब्द थे
मान लो कि
क्षण भर को
मैं यह स्वीकार लूँ
कि
पाप, पुन्य, धर्म अधर्म न्याय दंड
क्षमाशील वाला यह तुम्हार युद्ध सत्य है-
तो भी मैं क्या करूँ कनु
मैं तो वही हूँ
तुम्हारी बावरी मित्र
जिसे सदा उतना ही ज्ञान मिला
जितना तुमने उसे दिया
जितना तुमने मुझे दिया अभी तक
उसे पूरा समेटकर भी
आसपास जाने कितना है तुम्हारे इतिहास का
जिसका कुछ अर्थ मुझे समझ में नहीं आता है .
अपनी जमुना में
जहाँ घंटों अपने को निहारा करती थी मैं
वहां अब शस्त्रों से लदी हुयी
अगणित नौकाओं की पंक्ति रोज-रोज कहाँ जाती है?
धारा में बह-बह कर आते हुए टूटे रथ
जर्जर पताकाएं किसकी हैं ?
हारी हुयी सेनाएं, जीती हुयी सेनाएं
नभ को कांपते हुए,युद्ध घोष क्रंदन स्वर
भागे हुए सैनिकों से सुनी हुयी
अकल्पनीय अमानुषिक घटनाएं युद्ध की
क्या ये सब सार्थक हैं ?
चरों दिशाओं से
उत्तर को उड़ -उड़ कर जाते हुए
गिद्धों को क्या तुम बुलाते हो
( जैसेबुलाते हो भटकी गायों को )
जितनी समझ तुमसे पाई है अब तक कनु
उतनी बटोरकर भी
कितना कुछ है जिसका
कोई भी अर्थ मुझे समझ नहीं आता है
अर्जुन की तरह कभी
मुझे भी समझा दो
सार्थकता है क्या बंधु ?
मान लो तन्मयता के गहरे क्षण
रंगे हुए अर्थहीन , आकर्षक शब्द थे
तो सार्थक फिर क्या है कनु ?
पर इस सार्थकता को तुम मुझे
कैसे समझोगे कनु ?
शब्द, शब्द, शब्द......
मेरे लिए सब अर्थहीन हैं
यदि वे मेरे पास बैठकर
मेरे रूखे कुन्तलों में उँगलियाँ उलझाये हुए
तुम्हारे कांपते अधरों से नहीं निकलते
शब्द, शब्द, शब्द ...
कर्म, स्वधर्म, निर्णय, दायित्व ....
मैंने भी गली- गली सुने हैं ये शब्द
अर्जुन ने इनमें चाहे कुछ भी पाया हो
मैं इन्हें सुनकर कुछ नहीं पाती प्रिय
सिर्फ राह में ठिठककर
तुम्हारे उन अधरों कि कल्पना करती हूँ
जिनसे तुमने ये शब्द पहली बार कहे होंगे
तुम्हारा सांवला लहराता हुआ जिस्म
तुम्हारी किंचित मुड़ी हुई शंखग्रीवा
तुम्हारी उठी हुई चन्दन बाहें
तुम्हरी अपने में डूबी हुई
अधर्खुली दृष्टि
धीरे -धीरे हिलते हुए
तुम्हारे जादू भरे होंठ !
मैं कल्पना करती हूँ कि
अर्जुन की तरह मैं हूँ
और मेरे मन में मोह उत्पन्न हो गया है
और मैं नहीं जानती कि युद्ध मौन सा है
और मैं किसके पक्ष में हूँ
और समस्या क्या है
और लड़ाई किस बात की है
लेकिन मेरे मन में मोह उत्पन्न हो गया है
क्योंकि तुम्हारे द्वारा समझाया जाना
मुझे बहुत अच्छा लगता है
और सेनायें स्तब्ध खड़ी हैं
और इतिहास स्थगित हो गया है
और तुम मुझे समझा रहे हो ..............
कर्म, स्वधर्म, निर्णय, दायित्व
शब्द,शब्द, शब्द.......
मेरे लिए नितांत अर्थहीन हैं
मैं इन सबके परे अपलक तुम्हें देख रही हूँ
हर शब्द को अंजुरी बनाकर
बून-बूँद तुम्हें पी रही हूँ
और तुम्हारा तेज
मेरे जिस्म के एक-एक मूर्छित संवेदन को
धधका रहा है
और तुम्हारे जादू भरे होठों से
रजनी गंध के फूलों कि तरह ताप-ताप शब्द झर रहे हैं
एक के बाद एक के बाद एक
कर्म, स्वधर्म , निर्णय, दायित्व
मुझ तक आते-आते सब बदल गए हैं
मुझे सुना पड़ता है केवल
राधन, राधन, राधन
शब्द,शब्द, शब्द.......
तुम्हारे शब्द अगणित हैं कनु- संख्यातीत
पर उनका अर्थ मात्र एक है
मैं
मैं
केवल मैं !
फिर उन शब्दों से
मुझी को
इतिहास कैसे समझोगे कनु ?
- नमालूम