Wednesday, May 21, 2014

ध्रुवस्वामिनी से ......

कितना अनुभूति पूर्ण था वह एक क्षण का आलिंगन ! कितने संतोष से भरा था. नियति ने अज्ञात भाव से मानो लू से तपी हुई वसुधा को क्षितिज के निर्जन से सांयकालीन  शीतल आकाश से मिला दिया हो. जिस वायु विहीन प्रदेश में उखड़ी हुयी साँसों पर बंधन हो , अर्गला हो, वहां रहते रहते यह जीवन असहाय हो गया था. तो भी मरूंगी नहीं. संसार के कुछ दिन विधाता के विधान में अपने लिए सुरक्षित करा लूंगी. कुमार ! तुमने वही किया, जिसे मैं बचाती रही. तुम्हारे उपकार और स्नेह की वर्षा से मैं भीगी जा रही हूँ .ओह!, इस वक्ष स्थल में डॉ ह्रदय हैं क्या ? जब अन्तरंग 'हाँ' करना चाहता है , तब ऊपरी मन न क्यों कहला देता है ?

कुमार ! यह मृत्यु और निर्वासन का सुख, तुम अकेले ही लोगे, ऐसा नहीं हो सकता. मृत्यु के शहर में प्रवेश के समय मैं भी तुम्हारी ज्योति बनकर बुझ जाने की कामना रखती हूँ.

प्रणय ! प्रेम जब सामने से आते हुए तीव्र आलोक की तरह आँखों में प्रकाश पुंज उड़ेल देता है, तब सामने की  सब चीजें और भी अस्पष्ट हो जाती हैं. अपनी ओर से कोई भी प्रकाश किरण नहीं. तब वही केवल वही ! हो पागलपन , भूल हो, दुःख मिले , प्रेम करने की एक ऋतु होती है. उसमें चूकना, उसमें सोच समझ कर चलना दोनों बराबर हैं. सुना है दोनों ही संसार के चतुरों की दृष्टि में मूर्ख बनते हैं.

प्रश्न स्वाम किसी के सामने  नहीं आते. मैं तो समझती हूँ, मनुष्य उन्हें जीवन के लिए उपयोगी समझता है. मकड़ी कि तरह लटकने के लिए अपने आप ही जाला बुनता है. जीवन का प्राथमिक प्रसन्न उल्लास मनुष्य के भविष्य में मंगल और सौभाग्य को आम्नात्रित करता है उससे उदासीन न होना चाहिए.

तुम्हारी स्नेह सूचनाओं की सहज प्रसन्नता और मधुर आलोपों ने जिस दिन मन के नीरस और नीरव शून्य में संगीत की वसंत की  और मकरंद की सृष्टि कि थी . उसी दिन से मैं अनुभूतिमयी बन गयी हूँ. क्या वह मेरा भ्रम था ? कह दो-कह दो वह तेरी भूल थी.

इस भीषण संसार में एक प्रेम करने वाले ह्रदय को खो देना, सबसे बड़ी हानि है. डॉ प्यार करने वाले हृदयों के बीच में स्वर्गीय ज्योति का निवास है.

अभावमयी लघुता में मनुष्य अपने को महत्वपूर्ण दिखाने का अभियान न करे तो क्या अच्छा नहीं है ?

पाषाणी के भीतर भी कितने मधुर स्रोत बहते रहते हैं. उनमें मदिरा नहीं, शीतल जल की धारा बहती है.
प्यासों की तृप्ति -

प्रेम का नाम न लो. वह एक पीड़ा थी जो छूट गयी. उसकी कसक भी धीरे- धीरे दूर हो जाएगी . राजा, मैं तुम्हें प्यार नहीं करती मैं तो दर्प से दीप्त तुम्हारी महत्व्मयी पुरुष - मूर्ती की पुजारिन थी, जिसमें पृथ्वी पर अपने पैरों से खड़े होने कि दृढ़ता थी. इस स्वार्थ मलिन कलुष से भरी मूर्ती से मेरा परिचक्र नहीं.

अपनी तेज कि अग्नि में जो सब कुछ भस्म कर सकता हो, उस दृढ़ता का, आकाश के नक्षत्र कुछ बना बिगड़ नहीं सकते. तुम आशंका मात्र से दुर्बल-कम्पित और भयभीत हो.

'तुम आज कितनी प्रसन्न हो'
-और तुम क्यों नहीं ?
-'मेरे जीवन निशीथ का ध्रुव नक्षत्र इस घोर अन्धकार में अपनी स्थिर उज्ज्वलता से चमक रहा है. आज महोत्सव है न'.
स्त्री और पुरुष का परस्पर विश्वासपूर्वक अधिकार रक्षा और सहयोग ही तो विवाह कहा जाता है. यदि ऐसा न हो तो धर्म और विवाह खेल है.

' रानी, तुम भी स्त्री हो. क्या स्त्री की व्यथा न समझोगी? आज तुम्हारी विजय का अंधकार तुम्हारे शाश्वत स्त्रीत्व को ढक ले, किन्तु सबके जीवन में एक बार प्रेम कि दीपावली जलती है. जली होगी अवश्य. तुम्हारे भी जीवन में आलोक का वह महोत्सव आया होगा, जिसमें ह्रदय, ह्रदय को पहचानने का प्रयत्न करता है. उदार बनता है. और सर्वस्व दान करने का उत्साह रखता हो'

' स्त्रियों के इस बलिदान का भी कोई मूल्य नहीं. कितनी असहाय दशा है. अपने निर्बल और अवलंब खोजने वाले हाथों से यह पुरुषों के चरणों को पकड़ती है. और वह सदैव ही इनको तिरस्कार \, घृणा और दुर्दशा की भिक्षा से उपकृत करता है. तब भी वह बावली मानती है.'

' रोग- जर्जर शरीर पर अलंकारों की सजावट मलिनता और कलुष की ढेर पर बाहरी कुकम्भ - केसर का लेप गौरव नहीं बढाता'.