Wednesday, May 21, 2014

मैं प्रेम को संदेह से ऊपर समझती हूँ

 मैं प्रेम को संदेह से ऊपर समझती हूँ वह देह की वस्तु नहीं  आत्मा की वास्तु है. संदेह का वहां जरा भी स्थान नहीं है . और हिंसा तो संदेह का ही परिणाम है. वह सम्पूर्ण आत्मसमर्पण है. उसके मंदिर में तुम परीक्षक बन कर नहीं उपासक बनकर ही वरदान पा सकते हो.

जिसे सच्चा प्रेम कहते हैं, केवल बंधन में बंध जाने के बाद ही पैदा होता है. इसके पहले जो प्रेम होता है वह तो रूप का आसक्ति मात्र है, जिसका कोई टिकाव नहीं, मगर इसके पहले यह निश्चय तो कर लेना ही था कि जो पत्थर साहचर्य के खराद पर चढ़ेगा, उसमें खराडे जाने कि क्षमता है कि नहीं सभी पत्थर तो खराद पर चढ़ कर सुन्दर मूर्तियाँ नहीं बना पाते.

शरीर मात्र से प्रेम करना अपने कोमल और मासूम ह्रदय को बहलाना है. शांत एवं शुभ्र प्रेम- पूर्ण व्यवहार भाग्यशील लोग ही प्राप्त कर पाते हैं.

जो प्रसन्न होकर हँसता है वही दुखी होकर रोता है.

धन ने आजतक किसी नारी के ह्रदय पर विजय नहीं पायी. पायी है और न पा सकेगा.