Sunday, June 1, 2014

तुम जो मिलते तो कभी घर तो पहुँच ही जाते

घर की खामोश हवाओं ने बग़ावत की है
अपने ख्यालों से ही लोगों ने अदावत की है

नींद आई भी नहीं, स्वप्न आ गए पहले
किसने सपनों के लिए मेरी वकालत की है

तुम जो मिलते तो कभी घर तो पहुँच ही जाते
हमने रूठे हुए सपनों से मुहब्बत की है

रंग इस फूल का इतना चटक हुआ कैसे
आज माली ने बहारों से शिकायत की है

कोई उन्वान तो इस ज़िन्दगी का रख देते
गोकि हर एक ने इस दिल से शरारत की है

और हम सह न सके जुल्म रहनुमाओं के
हमने चुपचाप सियासत की खिलाफत की है

- राकेश 'भ्रमर'